कब तक उल्टा लटकाए रहोगे.
कहते हैं की हर तस्वीर कुछ कहती है.अब इसी तस्वीर को देख लीजिये,एक दिन दैनिक जागरण में दिख गयी.सरकार बहादुर के हाथ में डंडा है और उलटी लटकी हुई हुई जो टांगे दिख रही हैं वो न तो कलमाड़ी की हैं न कसाब की.बुजुर्ग बताते हैं की इस तरह उल्टा लटका के पीटने की परम्परा आदि काल से चली आरही है ,भले ही उसका कोई डिजिटल डाटा उपलब्ध न हो पर पर ये सरकार बहादुर का प्रिय तरीका रहा है जनता को लाईन पर लाने का.जनता पिटती रही है और जो इस हालत में पिटते हैं उनके लिए कोई रोने की हिम्मत भी नहीं कर सकता,क्योंकि वो भी अपराध की कटेगरी में आता है।
निश्चित ही पिटने वाले ने कोई संगीन अपराध किया होगा,क्योंकि सरकार एकदम बेवकूफ नहीं होती.हालिया घटनाओं को देखें तो एक बहुत बड़े मीडिया जनित योगी को ,जो कई सालों से एक धोती में दिखता था ,सरकार ने सलवार कमीज पहना दिया.पर एकाएक देश में एक उत्सव का माहौल बना और जो तिरंगा केवल साल के दो तीन दिन स्कूली बच्चों के हाथ में दिखता था वो सडकों पर इतना ज्यादा दिखने लगा की कई जगहों पर उसकी शार्टेज हो गयी.शायद तिरंगे को इतनी इज्ज़त मिलेगी ये कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा.ये इस लिए हुआ की जनता को लगने लगा की अगर उल्टा लटका के पीटेजाने से बचना है तो लो तिरंगा और उतर पड़ो मैदान में.जो भीड़ निकली उसे लोकपाल जोकपाल का मतलब भी नहीं पता और वो ज्यादा जानना भी नहीं चाहती .उसे लगा कि ये अवसर है निकल पड़ने का,बस चल पड़ो.अन्यथा जिस कि वकालत करते हुए एक अनशनकारी बुजुर्ग ने संसद को चुनौती दी है,उस बिल को समझ लें तो आधी से ज्यादा भीड़ अन्ना हाय हाय करने लगेगी क्योंकि उस भीड़ के हित भी निश्चित ही प्रभावी होंगे,जो कहीं न कहीं इस भ्रष्टाचार से पोषित भी है.ये अलग बात है कि अपना ठीक लगता है पर दूसरा करे तो कैरेक्टर ढीला होने कि बात कि जाती है।
ये इस भीड़ का ही असर रहा कि उल्टा लटकाने में माहिर सरकार बहादुर को खुद उल्टा लटकने कि तैयारी करनी पडगई.पर भीड़ देख कर तमाम लोग जो लटकाए रहना चाहते हैं,और कई जगह लटकने में भी उन्हें आनंद आता है नए नए मुखौटे और मुद्दे लेकर उभरने लगे हैं.अभी तक शायद सो रहे थे,उनके कमरे कि खिड़कियाँ कुछ देर से खुलीं और सड़कों कि हलचल पता चली तो कुलबुलाहट होने लगी.उनसे यही कहा जासकता है कि आप को मना किसने किया था,आप भी अपने मुद्दे को प्रभावी ढंग से या प्रोपगंडा बना के ही सही सामने आये होते.एक बड़ा वर्ग जो जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी का नारा लगाता रहा है उनसे भी नम्र निवेदन है कि आप ये बखरी लगाने कि जगह क्यों नहीं मोर्चा सँभालते.किसी ने अन्ना कि जात नहीं पूछी,बस उनका रास्ता कुछ ठीक लगा और निकल पड़े.मत रोकिये इस रस्ते को और हो जाईये शामिल,मत कहिये मैं भी अन्ना -तू भी अन्ना .बस ये कहिये कि संविधान कहता है कि "हम भारत के लोग"भी कुछ हैं, न कि रजिस्टर्ड पार्टियाँ ही हैसियत रखती हैं.
सरकार बहादुर के कानों तक धमक तो पहुंची कि कब तक उल्टा लटकाए रहोगे.
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सही कहा ..लोग चाहें तो बहुत कुछ कर सकते हैं
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