हमारी गड़बड़ी , तंत्र की मजबूती
हमने थोड़ी सी गड़बड़ की तो ये सरकार और मजबूत हो जाएगी.दिल्ली के रामलीला मैदान से आज अन्ना का उद्बोधन बहुत कुछ कह गया.जिनके बारे में कहा जारहा था की अब उठने की ताकत नहीं बची है,स्वास्थ्य गिरता जारहा है,और इस हवाले से सरकार को कोई बहाना मिल जाये और चिकत्सकीय आधार पर उन्हें हटाया जा सकता है.आज वो फिर बोले. उनकी सहजता और साधारण बुध्धि से उपजे विचार इस उत्सवधर्मिता को समेटे आन्दोलन को उर्जा प्रदान कर रहे हैं.आज पहली बार उन्होंने उन सारे मुद्दों को छुआ जिनको लेकर अभी तक एक वर्ग अपने को कटा हुआ महसूस कर रहा है। उन्होंने दलितों की बात की ,सर्वधर्म सद्भाव की बात ,छात्रों की बात की और जमीन अधिग्रहण के मुद्दे पर सुलग रहे आक्रोश की बात की.एक बड़े बुजुर्गों की तरह अनशन स्थल पर नशे की हालत में आने वालों को डांट नहीं लगायी और उनसे विनती की कि इस आन्दोलन में दाग न लगने दें।
हर तरफ चर्चा है कि सरकार अब इस मुद्दे पर गंभीर है पर ये खाए ,पिए अघाए लोग कितने गंभीर हैं.कितने घंटे से एक बूढा शरीर ,अनशन में उर्जावान बना हुआ है,उसके विचार और वाणी से कहीं भी विचलन का आभास नहीं मिलता .पर हुक्मरान अभी विचार कर रहे हैं,कैसा विचार. क्या हमारे द्वारा चुने हुए ये लोकतंत्र के ठीकेदार विचार शून्य हो चुके हैं.
निश्चित ही सत्ता को एक कार्पोरेट कल्चर में ढाल चुके तंत्र के पास जनमानस के धरातल पर उतर कर सोचने कि क्षमता समाप्त हो गयी है.एक्जक्यूटिव बन कर सरकार चलाने वालों को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है.सारे विलायत रिटर्न और विलायती भाषा में संवाद कि समझ सीखने वाले सलाहकार अब मौन हो चुके हैं,क्योंकि उन्हें भरोसा हो गया था कि जनता हमेशा के लिए सो चुकी है और उनसे कभी सवाल नहीं किये जायेंगे.ऐसे में जन संवाद कि कला रखने वाले लोगों का राजनीती से सफाया हो गया और केवल नफासत से टीवी चैनलों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले ही एक सूत्र बन गए जनता और तंत्र के बीच सीमित संवाद के.ऐसे में सरकार को कुछ करना होगा और जनता के प्रतिनधि के रूप में बैठे अन्ना के पास जाना होगा.अन्यथा अब जनता अपने नुमयिन्दों के दरवाजे पर जवाब लेने के लिए पहुँचाने लगी है.ऐसे में केवल लंबित होती बैठकों का हवाला देकर कुछ करने का बहाना आखिर कब तक चलता रहेगा. विपक्ष भी सत्ता सुंदरी के आलिंगन के लिए तैयार बैठा है पर झिझक उसे भी है,अगर ऐसा न होता तो आज सरकार द्वारा बुलाई गयी सर्वदलीय बैठक विपक्ष के कहने पर टाली न जाती.हवाला दिया गया कि सारे लोग दिल्ली में नहीं हैं,संसद चल रही है,दुनिया कि निगाहें रामलीला मैदान पर लगी हैं ऐसे में कहाँ हैं विपक्षी दल के लोग।
सत्ताधारी दल के सांसद भी चुनावी भविष्य को देखते हुए गाँधी टोपी लगाये घूमते नज़र आरहे हैं,अन्ना कह रहे हैं कि अगर मृत्यु भी आजाये तो कोई परवाह नहीं, पर दरबार मौन है। क्या उसे अन्ना कि मौत का इंतजार है.शायद उसे अभी भी भ्रम है कि ये आन्दोलन शहरी एलिट का है जिसे अन्ना के रूप में एक आइकन मिला है.पर ऐसे भ्रम जब टूटते हैं तो टूट जाती हैं बहुत सारी चीजें. ये केवल टीवी कैमरों में फोकस पाने का आन्दोलन नहीं है,ये जनता का उभार है,अपनी संस्कारगत कमियों के बावजूद सत्ता को चुनौती देने का.आखिर संविधान हम भारत के लोगों को ही प्रभुता देता है.अभी तक हमने जों गड़बड़ की उससे इस भ्रष्ट तंत्र को मजबूती ही मिली पर अब एक बूढा सिपाही ,जिसका जोश कहता है अब बस करो अब और बर्दास्त नहीं होगा ,ललकार रहा है । निश्चित ही ये ललकार बहुत आगे तक जाएगी,क्योंकि कभी मैं भी गाँधी ,तू भी गाँधी नहीं नहीं सुना गया था .अब मैं भी अन्ना और तू भी अन्ना गूँज रहा है तो इसमें ग्लोबल होतेमध्यवर्गीय समाज और जनहित से कटते जाते युग में एक नया मोड़ आने की संभावनाएं दिखती हैं.जिसे गाँव गिरांव से लेकर लेह और चेन्नई तक समर्थन मिल रहा है.
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पता नहीं सरकार क्या चाहती है ....आखिर कब तक चलेगा ये सब
जवाब देंहटाएंलगता है सरकार धैर्य की परीक्षा ले रही है.
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