अदम गोंडवी

                  रामनाथ सिंह उर्फ  अदम गोंडवी
                                                               जन्म:22अक्तूबर 1947
                                                               मृत्यु 18दिसम्बर2011 
 

 अदम गोंडवी ने कभी सत्ता की वन्दना नहीं की.एक जन कवि के लिए बड़ा  मुश्किल होता है जीना पर बहुत कुछ सिखा जाता है इनका होना. सोचा उन  सब के लिए जो इन्हें पढ़ना  चाहते हैं और पढ़े नहीं हैं, कुछ पंक्तियाँ यहाँ दी जाएँ.एक एक पंक्ति  करारी  चोट करती हुई .................
भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाक़िफ़ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो
गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिशनगी को वोदका के आचमन तक ले चलो
ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो.

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वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्‍था विश्‍वास लेकर क्‍या करें

लोकरंजन हो जहां शम्‍बूक-वध की आड़ में

उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्‍या करें

कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास

त्रासदी,
कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें
बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है

ठूंठ में भी सेक्‍स का एहसास लेकर क्‍या करें

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे

पारलौकिक प्‍यार का मधुमास लेकर क्‍या करें.
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आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजू पार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहां
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहां
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी'
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया
क्षणिकतैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था
रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुरज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेर कर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
'
जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने'
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर 'माल वो चोरी का तूने क्या किया'
'
कैसी चोरी माल कैसा' उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा
होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
`
मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो´
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे
´´
कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं ´´
यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फिर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा"
इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"
पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
`
कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल´
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

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- न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
  तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से 
 कि अब मर्क़ज़ में रोटी है,मुहब्बत हाशिये पर है 
उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से
  अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है 
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से,
  बहारे-बेकिराँ में ता-क़यामत का सफ़र ठहरा 
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से
  अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रक्खें धूमिलकी विरासत को क़रीने से.

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काजू भुने पलेट में, व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में


पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में


आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह

जो आ गये फुटपाथ पर घर की तलाश में


पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें

संसद बदल गयी है यहां की नखास में


जनता के पास एक ही चारा है बगावत

यह बात कह रहा हूं मैं होशो-हवास में





 

स्लम टूर

 स्लम टूर का विदेशियों में बड़ा क्रेज होता है,ये एक अलग ही तरीके का टूर होता है.जिसमें जानवरों जैसे हालत में जी रहे मानुषों को देखने के लिए बड़े बड़े कैमरे और पानी कि बोतल लेकर टूरिस्ट आते हैं.हवाई अड्डे पर ही होटल वाले माला वाला पहना कर रिसीव करते हैं और शाईनिंग इण्डिया के दर्शन के स्पेसल पॅकेज कि शुरुआत हो जाती है.अब इस टूर में धारावी कि मोनोपोली ख़तम हो गयी है.बढ़ते रुझान को देखते हुए सरकारी स्तर पर बड़ी बड़ी योजनायें बनायीं गयी हैं ताकि स्लम हर जगह बन सके और टूरिस्टों को ज्यादे दिक्कत न हो क्योंकि इस धंधे से देश कि आय में उछाल आती है. इस तरह के टूर से उस भारत कि खोज होती है जो टीवी चैनलों और फिल्म फेस्टिवलों में नहीं दिखाया जाता.टूरिस्म प्रमोट करने के वास्ते अपने ब्रोसर में भी सरकार पता नहीं क्यों स्लम टूर के बारे में नहीं बताती.
स्लमों में जब अलग नस्ल के लोग आते हैं तो कई दिनों तक उनकी चाल,उनके कपडे,बोलने के लहजे आदि कि चर्चा होती रहती है.ऐसे ही भारत के भी एक स्वयंभू युवराज हैं जिनको विलेज सफारी का बड़ा चस्का लगा है.ये जब से राजनीती में आये हैं ,गाहे -बगाहे चार्टेड प्लेन से निकल पड़ते हैं.पर अधेड़ होने को आगये अभी तक समझ नहीं सकें हैं.ये जब भी टूर पर निकलते हैं तब मिडिया वाले ऐसा हल्ला मचाते हैं जैसे कहीं हांका लग रहा हो.गावों में भी इनका टार्गेट वही समाज रहता है जिसके भले के लिए इनका  खानदानी  पंजा अब खूनी दिखने लगा है.महंगाई से आम आदमी का जीना मुहाल हो गया है,अब सरकारी अर्थशास्त्री  कह रहे हैं कि डीज़ल कि कीमत बढ़ा दी जाये तो महंगाई  कम हो सकती है.जबकि युवराज बनारस में बोल के गए कि यूपी में कांग्रेस कि सरकार नहीं है इसलिए बदहाली है.जनता भी ताली बजा दी क्योंकि बोलने से पहले टूरिस्ट ने उसी बस्ती के कुँए का पानी पिया था.वो लोटा भी धन्य होगया जिससे जल ग्रहण किया गया था.
बताया गया कि ये गूगल पर गाँव खोजते हैं फिर निकल पड़ते हैं.जहाँ अब तेल कि कीमतों से आजिज़ आकर खाते पीते लोग भी गाड़ी स्टार्ट करने से पहले सोचते हैं,वहीँ  जहाज और बड़ी बड़ी गाड़ियों के साथ देश के गरीबों कि चिंता लिए घूमते भावी प्रधानमंत्री को ये समझ में क्यों नहीं आता कि ये दलित बस्तियां अभी भी क्यों कायम हैं,क्यों अब हमारे गाँव भी स्लम टूर का मजा देने लगें हैं.खेती किसानी को बर्बाद करने के लिए बड़ी बड़ी परियोजनाएं आगई हैं.पूरी कोशिश सफल होती दिख रही है जब किसान मजदूर  बन जायेंगे,और धीरे धीरे खेत कार्पोरेट फार्मिंग करने वालों  या फिर बिल्डरों के हाथ में आजायेंगे. फिर ऐसा समय आएगा कि न खेत बचेंगे न कोई काम बचेगा,आखिर नरेगा - सरेगा में कब तक  काम रहेगा(बांस जमीन में गाड़ के ऊपर नीचे करने का भी पेमेंट होने लगे तो अलग बात) .फिर वो मजदूर बन चुका किसान  आखिर में शहर कि ओर  ही भागेगा,और हर शहर एक एडवेंचरस स्लम टूरिज्म कि संभावनाओं को अपने आप में समाये रहेगा.
फिर किसी दिल्ली वाले  को गाँव कि ओर भागने कि जरूरत नहीं पड़ेगी,बोर होने पर वह इन्ही गलियों  में निकल जायेगा जहाँ आदमी टाईप के लोग मिलेंगे,और वो वोटर भी होंगे.

सद्भावना टोपी

  सद्भावना में टोपी का बड़ा महत्त्व है,ऐसा कम से कम आधुनिक भारत के इतिहास से पता चलता है.अनेक अवसरों पर भांति भांति की टोपियाँ पहनाई जाती रही हैं.गाँधी को टोपी पहने हुए,कम से कम मैंने तो किसी चित्र में  नहीं देखा पर गाँधी मार्का टोपी ऐसी पहनाई गयी की आज तक गले लगी है.ये तो सब जानते हैं की टोपी नेहरू पहनते थे और ब्रांड नेम हुआ गाँधी. टोपियों का इतिहास बड़ा अजीब है,अभी ताज़ा इतिहास टाईप का कुछ दिल्ली के रामलीला मैदान से लेकर सभी टीवी चैनलों पर भी बना था,जब सडकों पर टोपियों का 'सैलाब' दिखने लगा था.
हालिया चर्चा में एक टोपी कांड अहमदाबाद में हुआ,सूत्र बताते हैं की ये भी एक पूर्वनियोजित कार्यक्रम था.राम को फिर भुनाना मुश्किल होता देख एक लाईव कार्यक्रम रखा गया,जहाँ चाँद तारा मार्का टोपी को, कैमरे के सामने लगाने से मना किया गया.ये सिकुलर राजनीति में एक दुस्साहसिक कदम है,क्योंकि टोपी के चक्कर में ही ओसामा भी 'जी' हो जाता है,ऐसे में सद्भावना उपवास में टोपी का अनादर ? पर ये बात दूर तक जाएगी,भटके हुए लोग जो चाल और चरित्र बिगड़ जाने की बात कर रहे थे ,फिर एकजुट हो जायेंगे.एक महानायक की धमक दिल्ली पहुँचने लगी और वेटिंग में पड़े कैंडिडेट का नाम ही लिस्ट से बाहर हो गया.ठीक बात है ,भाई आज़ादी , अपनी अपनी.आप पहनो या मत पहनो.पर राजनियत समझना सब के बस की बात नहीं,खाली 32 रुपये रोज का जुगाड़ कर के रेखा पार कर लेने वाले तो एक दम नहीं समझ पाएंगे.लोगों ने अपनी अपनी समझ के हिसाब से इस टोपी को देखने की कोशिश  की. समझने की आज़ादी एक बात है और उस को अभिव्यक्त करने की आज़ादी दूसरी बात है.संविधान तो बहुत कुछ कहता है,उसकी बात मत कीजियेगा. इस टोपी कांड को भी इंदौर के एक कार्टूनिस्ट हरीश यादव "मुसव्विर " ने अपने हिसाब से समझा और एक अखबार में कार्टून बना दिया.छपते ही बवाल मच गया.मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री आजकल चीन गए हुए हैं(दक्षिणपंथी, वामपंथियों के देश में),ने तत्काल आदेश दिया की राज्य की सद्भावना बिगड़ने न पाए इसलिए हरीश को गिफ्तार किया जाए.धार्मिक भावनाएं भड़काने के आरोप में धारा २९५ A  के तहत कार्टूनिस्ट हरीश गिफ्तार कर लिए गए.धार्मिक भावना ,यानि चाँद तारे वाली टोपी को गलत जगह पर दिखाना,या मोदी जी का नग्न चित्र बना कर "हिन्दू ह्रदय सम्राट" की छवि धूमिल करना ,क्या मामला है भाई?अखबार का कारिन्दा अपनी बहादुरी के चक्कर  में कभी संकट में पड़ जाता है तो खुद ही झेलता है,वैसे ही हरीश झेलेंगे.अभी भोपाल फोन मिलाया तो 'हिन्दू' पत्रकार मित्र ने कहा की इसके पहले क्यों नहीं उसने दिग्विजय या सोनिया का भी ऐसा ही कार्टून बनाया.ये भी ठिकाने का तर्क हो सकता है बहुतों के लिए,पर मुझे तो कार्टून में उस डंडे की छवि का ध्यान आरहा है जो इस देश को हांकने के लिए तंत्र के हाथ में है.ये डंडा हाथ में रहे तो एक कांस्टेबल की तहरीर पर आईपीएस गिफ्तार किया जा सकता है, अदने से कार्टूनिस्ट की क्या औकात ,वो तो बेचारा बत्तीस रुपये को चौसठ करने के चक्कर में आड़ी तिरछी रेखाएं खींचता रहता है,ताकि जिंदगी की गाड़ी धक्कापेल चलती रहे. 

वाईब्रेंट उपवास

गुजरात बड़ा कलरफुल लगता है,हर चीज वहां की अनोखी होती है.कुछ नया करने में गुजराती पूरी दुनिया में सबसे आगे रहते हैं.उनके इन्नोवेटिव विचारों ने पूरी दुनिया में जगह बनायीं है,चाहे दुनिया मुट्ठी में करने की बात हो या रेलगाड़ी को भट्ठी बनाने  की बात  हो. इस समय भी तमाम सरकारी और गैर सरकारी कारणों से गुजरात चर्चा  में  है.दिल्ली से लेकर अमेरिका तक लोग नाम ले रहे हैं.ऐसे में वहां के मुखिया का उपवास पर बैठना एक बड़ी घटना है. इस बारे में आप लोगों को डिटेल टीवी से मिलता रहेगा.हाँ तब तक दिल्ली डूबी की मुम्बई,अन्ना का भजन या अमर की जमानत पर जयाप्रदा के विचार जैसे समाचार आप लोगों को नहीं मिलेंगे.हाँ इस अवसर पर अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री क्या कहते हैं ये जानने की कोशिश की है असांचे कुमार ने,जिनकी ख़बरों को आप अपने रिस्क पर सच्ची या झूठी मानने  के लिए स्वतंत्र हैं.------- 
किसी भी उपवास पर सबसे पहले डाक्टर की सलाह ली जाती है,तो सबसे पहले नागालैंड (ये भी भारत में ही है) के मुख्यमंत्री डाक्टर मुकुल संगमा (ओरिजिनल  एमबीबीएस ) का कहना है की ये उनका निजी मामला  है और हमारे राज्य में उपवास की स्थिति कभी नहीं आती क्योंकि हम लोग सब कुछ खाते हैं,इसलिए लोगों को भूखे रहने की आदत  नहीं है.हाँ मैं जिस दिन टीवी खोलता हूँ उस दिन  नहीं खाता क्योंकि हमारे इलाके की खबर आप लोग दिखाते ही नहीं हैं.अगर दिल्ली जाता हूँ तो हफ्ते भर खाने का मन नहीं करता क्योंकि सब पूछते हैं की किस देश से आये हैं.
भारत का मुकुट (किताबों में लिखा है ) है कश्मीर,वहां के ओमर अब्दुल्ला साहब  ने बताया की वो खुद चार दिन से ठीक से खा नहीं पा  रहे हैं.शादी  टूट गयी है,मैं अपनी मीडिया वाली मित्र  से रिश्ता जोड़ना चाहता हूँ जबकि अब्बू जोर मार रहे हैं की पार्टी का ध्यान रखते हुए वानी साहब की बेटी से ब्याह करना चाहिए.ऐसे में कम्युनल पार्टी का कोई खाए या उपवास रहे ,उससे मुझे क्या.
उत्तराखंड के फौजी सीएम ने मूंछों पर ताव   देते हुए कहा की भाई अभी तो बड़ा खाना का टाईम  है,लोकसभा में सारी सीटें हारने पर मेरा कोर्ट मार्शल  हो गया था.अब विधान सभा की तैयारी है.गुजरात बहुत दूर है.जब तक दूसरी लाईन के सभी नेताओं से बात नहीं हो जाती तब तक मैं मोदी पर कुछ नहीं बोलूँगा.
मायावती का मानना है की अब मनुवादी ताकतें एक हो रहीं हैं,और जब तक केंद्र सरकार सीबीआई के घोड़े नहीं छोड़ती मैं इस मुद्दे के विरोध में हूँ.हाँ आप लोग किसिम किसिम की बात करते हैं लेकिन मैं उपवास की समर्थक नहीं हूँ,क्योंकि फिर मेरे भोजन चखने वालों को भी भूखा रहना पड़ेगा और मैं अन्याय किसी के साथ नहीं करती.
छत्तीसगढ़ के रमण सिंह का कहना है की एक आयुर्वेदिक डाक्टर होने के नाते मैं उपवास का समर्थन करता हूँ.मुझे कभी दिल्ली नहीं जाना इसलिए मोदी कुछ भी करें बस चुनाव में मेरे यहाँ भी समय दें. 
राजस्थान के गहलोत साहब का मानना है की इधर कुछ दिन से उनको भी भूख नहीं लग रही है और शरीर पर कोई असर नहीं पड़ा.आईइएस गायब,मंत्री भंवर में ,कुछ जमीनों का लेन देन,भूख ही मर गयी.पर मोदी के बारे में मैं दिन भर टीवी देखूंगा तब बोलूँगा. 
शीला दीक्षित का कहना है की डूबती दिल्ली को देखते हुए सब मुझे अन्दरखाने बोल तो रहे हैं की मोदी से सीख लीजिये.अभी बारिश में दिन भर मेरी गाड़ी पानी में फंसी रही और लंच नहीं कर पाई ,कमजोरी हो गयी है.लेकिन वाघेला जी जो कर रहे हैं वह तारीफ के काबिल है,भले ही प्रेरणा नरेंद्र मोदी से मिली हो. 
महाराष्ट्र के चह्वाण साहब का कहना है की हमारे मराठी मानुस अन्ना जी जैसा कोई नहीं हो सकता.ये उपवास ड्रामा है.महाराष्ट्र के खिलाफ साजिश कर के गुजरातियों ने यहाँ की कमाई भी वहां लगा दी है.बिहारी लोगों से भी ज्यादा बुरा किया है इन लोगों ने हमारे साथ.ऐसे में मैं मोदी ही नहीं बल्कि सारे गुजरातियों की निंदा करता हूँ.
 जयललिता जी का कहना है की एक बार मैं उपवास पर बैठी थी तो डीएमके वाले पूछ रहे थे की मैं बार -बार अपनी वैन में क्यों जाती थी.इसीलिए मैंने अपने दो नेताओं को गुजरात भेजा है,जरा देख के आयें की उपवास कैसे मैनेज किया जाता है.जब तक कांग्रेस उस काले चश्मे वाले के साथ रहेगी,मैं भाजपा के हर काम का समर्थन करूंगी.
      इतनी  रिपोर्टिंग के बाद असांचे कुमार को खबर मिली की मोदी भाऊ के यहाँ माहौल  जम रहा है. सब झूठ सच लिखने दिखाने वाले वहां पहुँच रहे हैं ,सो वह भी गुजरात निकल लिया. 


हिंदी इज कूल !


हिंदी दिवस,सुनने में बड़ा अजीब लगता है.अब इसमें अजीब क्या है?खड़ी बोली के इतिहास में जाने की जरूरत नहीं,जैसे इंडिया दैट इस भारत है वैसे ही दुनिया को पता है की हिंदुस्तान की एक भाषा हिंदी है.कुछ वर्षों पहले तक ये गंभीर चिंता का विषय था की हिंदी गंवार गवंई भारत की बोली बन के न रह जाए, क्योंकि शाईनिंग इण्डिया हो रहा था.गाँव  की गलियों में भी कार्मेंट स्कूल खुल रहे हैं..'स्पोकिंग' अंग्रेजी ठीक करने के लिए  'व्हेन आई टाक तो आईये टाक' मार्का स्पोकेन क्लासेस की दुकानों की बाढ़ आगई.हिंदी पिछड़े पन की निशानी समझी जा रही थी,तभी भूमंडली करण की बयार चली और भला होने लगा हिंदी का भी.बाज़ार मुट्ठी में करने के लिए निकले शूरमाओं को सबसे पहले ध्यान आया की हिंदी तो देश की आत्मा है,फिर तो क्रिएटिव हिंदी का स्कोप बढ़ा और तरह तरह के विज्ञापन किसी न किसी रूप में हिंदी को प्रमोट करने लगे.सिनेमा का तो बहुत बड़ा योगदान है,विदेशों का नहीं मालूम पर अपने यहाँ तो अहिन्दी भाषी फौजियों को उनकी यूनिट में सिनेमा दिखाया जाता है ताकि भाषा समझने लगें.ये अलग बात है की हिंदी के संवाद रोमन स्क्रिप्ट में लिख कर हीरो हिरोईन को दिए जाते हैं,क्योंकि ज्यादेतर कलाकार ओरिजनल अंग्रेजी मीडियम के स्कूल में पढ़े हैं जहाँ हिंदी बोलने पर सजा दी जाती है.पर इस तरीके  से कटरीना जैसों को लाभ मिलता है और फायदे में हम भी हैं ,वर्ना एक प्रतिभा से हम वंचित रहते.
हिंदी में एक शिकायत ये भी है की लोग हिंदी साहित्य पढ़ते ही नहीं,पढ़ते भी हैं कभी कभार तो खरीद के तो बिलकुल नहीं.इसी कारण साहित्य का विकास नहीं हो पा रहा है,जैसे लगता ही की प्रेमचंद पहले अपने पाठक सेट कर लेते थे तब लिखना शुरू करते थे.पर इस लिखंत पढंत को नया आयाम मिल गया साईबर अंतरजाल से.बाज़ार का सोच के ही सही पर अमेरिकी कंपनियों के ऊपर आधारित इंटरनेट ने हिंदी को जो दिशा दी उससे भारतेंदु और रामचंद शुक्ल की आत्माएं भी प्रसन्न होंगी. फेसबुक द्वारा रचनात्मकता के योगदान पर तो शोध होने चाहिए.हर आदमी जिसके पास नेट है,थोडा बहुत क्रिएटिव हो ही गया है.कभी ये रचनात्मकता मौलिक दिखती है तो कभी  क़तर ब्योंत और कापी पेस्ट की कारीगरी भी रहती है.लेकिन बात हिंदी की तो रहती ही है.फिर इसमें ब्लोगिंग ने तो क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया.मसि कागद का झंझट ही ख़तम.बस जो जी में आये लिखिए , हाँ पाठक धीरे धीरे आही जाते हैं नहीं तो गुट बना के आप किसी को लाईक करिए,कमेन्ट मारते रहिये ,शर्म लिहाज होगी तो वो भी आपके साथ वैसा ही व्यवहार करेगा. और सबसे बड़ी बात ऐसी हिंदी सेवा में खर्चा भी कुछ अधिक नहीं है और पहुँच की थाह तो नारद मुनि को भी लगाना मुश्किल.तो चिंता की कोई बात नहीं,हिंदी बची रहेगी.मना लेने दीजिये दिवस,कम से कम इसी बहाने तमाम संस्थानों में कुछ लोगों को नौकरी मिली हुई है.याद आता है हिंदी प्रेमी मुलायम यादव के मुख्यमंत्री रहते जारी एक सर्कुलर जिसको ब्यूरोक्रेसी ने अपनी भाषा में जारी किया था की-"आल कंसर्न्ड आफिसर्स आर रिक्वेस्टेड टू यूज हिंदी,इन प्लेस ऑफ़ इंग्लिश." 
 पर साहब बहादुर लोग भी समझें की हिंदी हमारे दिलों में है,सपने हमें हिंदी में ही आते हैं.पूरे देश को जोड़ती है और दुनिया में हमारी पहचान है हिंदी.   


सैंडिल क्वीन ?

  विकिलीक्स का दुनिया में बड़ा नाम है.हमारी आपकी क्या औकात,उसने ओबामा से लेकर अरब के शाह की  नाक  में भी पानी भर दिया है.इस लीकेज कंपनी के सरदार जुलियन असान्जे निर्विवाद रूप से हेक्टिविस्ट मूवमेंट के बादशाह हैं.निश्चित ही कुछ दिनों पहले तक उन्हें मालूम नहीं रहा  होगा की  भारत में लोग अभी किस युग में जी रहे हैं.उनके द्वारा लीक किये गए  केबल्स में से कुछ उत्तर प्रदेश की  मुख्यमंत्री के  बारे में थे.बस यहीं से वो  सब भी  दुनिया के सामने लीक हो गया  जो  हम लोग  अब तक छुपाये बैठे थे.कुछ दलित  विचारकों का  कहना  है की लखनऊ के मनुवादी पत्रकारों ने अमेरिकी अधिकारियों को टुच्ची जानकारियां दी थीं वही लीक  कर के सब हाय तोबा मचा रहे हैं.यूँ तो तमाम जानकारियां थीं पर मसालेदार बात निकली सैंडिल  लेने के लिए वायुयान का मुंबई जाना.सही बात है, मद्रासी जयललिता के  सैंडलों से बड़ी खबर ये थी.पर  हल्ला किस बात का? रानी हैं,जितना मन करे भेली खाएं,बीडी पिए ,आप कौन होते हैं सवाल उठाने वाले
                अपने जोरदार अंदाज में बहिन जी ने इसका जवाब दिया,और असान्जे को  विरोधियों के  हाथों में खेलने वाला बतादिया.बस यहीं गड़बड़ी हो गयी.दुनिया जान गयी की बीमारू कहे जाने वाले ग्रुप ऑफ़ स्टेट्स में सिरमौर उत्तरप्रदेश अपनी जगह पर कायम क्यों है.  देश की सबसे ज्यादा जनसँख्या और गरीबी  ढोने वाला प्रदेश किन  लोगों के हवाले है.राजीव गाँधी का सूचना क्रांति का सपना कहाँ गया,जब इस प्रदेश के  मुखिया को ही नहीं मालूम की कोसना किसको है.एक आस्ट्रेलियन  अखबार ने चुटकी लेते ,  हुए लिखा की सैंडिल क्वीन को इतनी  समझ नहीं की इस संवाद में असान्जे की क्या भूमिका है.सब जान गए की कंप्यूटर क्रांति कहाँ है, सिलिकन वैली में अपना झंडा गाड़ने वाले भी जरूर शर्माए होंगे.असान्जे के  बाप ने भी  कभी ये सपना भी नहीं देखा होगा की उनका बेटा कभी एंटी दलित और मनुवादी गतिविधियों   में शामिल पाया जायेगा,बलात्कार - सलात्कार तो चलते रहते हैं. सलाहकार लोग तो खुद ही  दूसरे लीकेज की सफाई देने में लग गए होंगे अन्यथा   उन्होंने समझाया होता की ये विकी सिकी क्या है,खतो किताबत  चुराने वाले को गाली दे कर क्या मिलेगा.पर दोनों खास सलाहकारों  को भी इस लीकेज से  फायदा ही हुआ.वो अपनी जात जमात और करीबियों से  कह तो सकते ही हैं की देखो दिल से हम साफ़ हैं,कम से कम विकीलीक्स पर भरोसा करो.
हाँ उलटी  सीधी हरकत के आरोप में नजरबन्द असान्जे को जरूर  खुल कर हँसने का मौका मिला होगा.

ये भी गए !

  कलकत्ता से आये दिल्ली , दिल्ली से पहुंचे बम्बई बीच में  आया सैफई पर जाना पड़ा तिहाड़.हे भगवान टूटा ये कौन सा पहाड़ ! उन्हें संकट मोचक कहा जाता था,कोई भी समस्या हो चुटकी बजाते  हल निकालने का दावा और शायद  ही कोई ऐसी  जगह नहीं जहाँ पहुँच  नहीं का गुरूर.पर ये तो कभी सोचा  न था की अफजल  गुरु का पडोसी बनना पड़ेगा.कहते  हैं की ऐसे लक्षण दुर्दिन का चरम है     .           
     उन्हें  स्टिंग का  किंग भी कहा जाता रहा है,हर मौके पर उनके पास सी डी तैयार रहती थी.गोया कोई चलता फिरता प्रोडक्सन हाउस  हो. बिपाशा से बातचीत में उन्होंने अपनी  कमजोरी का जिक्र किया तो था पर समय इतना कमजोर हो जायेगा ये  अंदेशा तो आज़म खान को भी नहीं रहा होगा.हे भगवान कहीं बड़े  भईया के साथ मंदिर मंदिर घूमना बंद हो गया  सजा उसी की मिल  रही है क्या. दोस्ताना सलामत रहता तो,बिग बहु की संतान के  वास्ते ही सही, पर टीवी  कैमरों को लेकर न जाने कितने मंदिर घूम आयेहोते. लेकिन फंस गए एक टीवी चैनल के जाल में.इसमें भी  दुविधा ही है की कहीं वो सीडी भी इन्होने ही तो नहीं बनवाई थी ताकि  भविष्य में इनहाउस  वितरण में काम आये.पर ये फंसे किस बात के लिए हैं ये समझ में नहीं आरहा है. सूत्रों , की माने तो सैफई में  स्टेज शो और भंडारा का  आयोजन किया जाना था और  नेताजी ने इस बार नयी वैरायटी  लाने को कहा था, इसी  चक्कर में ये अलग अलग तरह के  आईटम की तलाश में  बयाने की रकम को कुछ कलाकारों तक पहुँचाने में लगे थे. लेकिन  अर्गल ने कहा है की ये वाली बात अनर्गल है.तो भईया सही बात क्या है? सही बात तो ए रजा ने भी की और कानी ने भी,इन  दोनों ने कहा की हम जिस  मामले में जेल आये वो तो वजीरेआला पर भी बनता है.पर क्या  कलाकार  भी बोलेंगे की ये किस  समाज की  सेवा में  मेवा खाने आगये.पर अगर सच भी बोलेंगे तो कोई मानेगा नहीं क्योंकि कानून कहता है की केवल चिंदी चोर का  बयान ही प्रमाणिक होता है, जो हज़ार - दो हज़ार की  चोरी के केस में भीतर जाता है.बड़े लोगों के हवालात में  आने पर उनके उनके  हवाले से आने वाली हर बात झूठी होती है क्योंकि उनकी  बिरादरी में सच का  चलन ही नहीं है.अदालतें लाख कोशिश करती रहें  सुधारने की पर इन बड़े लोगों में सुधरने का  जीन ही नहीं होता....पर इनको तो जमानत जल्दी मिल जानी चाहिए,   . भ्रष्टाचार मिटाने के लिए चिंतित संसद द्वारा लोकपाल बिल बनाने के लिए गठित स्टैंडिंग कमिटी के माननीय सदस्य हैं.अधिक दिन तक अन्दर रहने से भ्रष्टाचार के खिलाफ संसद की मुहीम को झटका लगेगा.और ऐसे झटके गणिकातंत्र के लिए उचित नहीं हैं
   .......और अभी अभी खबर आरही है की  अदालत के बाहर बम फटा है.

तिरंगे की बहार



चलिए भारतीय जनतंत्र का एक उत्सव समाप्त हुआ,और मैं भी अन्ना तू भी अन्ना कहने वाले अपने अपने ठिकानों पर वापस लौट गए .बधाई हो नवीन जिंदल को,एक युवा के रूप में उन्होंने अमेरिका में हर जगह फहरते वहां के झंडे को देख कर अपने देश में भी ऐसी आज़ादी की लडाई लड़ी.उन्हें सफलता मिली और हमें भी अधिकार मिला की तिरंगा लेकर सडकों पर जब चाहें तब उतर सकें. आज़ादी के बाद पहली बार तिरंगे की ऐसी बहार आई की दर्जियों को ओवर टाईम करना पड़ा.निश्चित ही इस भीड़ के हाथों में तिरंगा जाने से आन्दोलन या उत्सव ,जो भी था ,उससे लोगों का जुडाव बढ़ता गया.ऐसी स्थिति में राष्ट्रिय चेतना मर गयी है जैसी बातें कहने वाले बुजुर्गों को कुछ राहत मिली होगी.निश्चित ही जो तिरंगे सडकों पर आये होंगे आज सम्मान के उन घरों में में रखे होंगे जहाँ से वो निकले थे.और वो फिर निकलेंगे जब कोई राष्ट्रिय पर्व आएगा.
इस भीड़ में युवाओं की भागीदारी बढ़ चढ़ कर थी,वही युवा जिनको साथ जोड़ने के लिए राजनैतिक दल तमाम तरह के हथकंडे अपनाते हैं.हरा नीला भगवा और लाल या जितने भी रंग हों सबके नीचे लाने के उपाय किये जाते हैं,पर अब वो दिन भी कहानियों में ही हैं जब यह वर्ग किसी झंडे के नीचे होकर निकलता था तो उसकी धमक सुनाई पड़ती थी.ऐसे में ये सबक तो मिला ही की इन्हें उदासीन समझने की गलती की जाय,इनकी उर्जा बची हुई है,बस ये निराश हो चुके हैं उन लोगों से जिन्होंने इन्हें सुनहरे सपने दिखाए फिर कहीं का नहीं छोड़ा.इस उत्सव में भी कहीं से भी सुनहरे सपने नहीं थे,बस आजादी थी उस झंडे को उठाने की जो कुछ समय पहले तक कुछ विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की गाड़ियों पर ही सजता था और खास दिनों पर ही आम जनता के हाथ में दिख सकता था.पर जनता भी उसे उठाने में हिचकती थी.
इस उत्सव ने तिरंगा उठाने का गर्व हर उस आदमी को महसूस कराया जो इसमें शामिल हुआ.अब जब की झंडा भी वापस रखा जा चुका है और रामलीला मैदान भी खाली हो चुका है तब फिर वो युवा ,जो भले ही कहा जारहा है की खास वर्ग से ही था,वापस अपनी जिंदगी में लौट चुका है.अब उस सैलाब,हालाँकि ये भी अभिजात्य मीडिया द्वारा गढ़ा गया कहा जारहा है,को अपने साथ लेने के लिए फिर मारामारी होगी.क्योंकि केवल टीवी कैमरों में फोकस पाने के लिए ही ये सड़क नहीं पर उतरे थे, इनको वो झंडा चाहिए जिसके नीचे आने में गर्व महसूस हो और इस काम के के लिए इन्हें घूस दी जाय.बस उन्हें प्रेरित किया जाय और उन्मादी बनाया जाय.
सपने दिखाने वाले बहुत आये और आते रहेंगे,सपने अधूरे ही रहेंगेपर तिरंगे के साथ निकली ये भीड़ बहुत कुछ कहती है.बस इनका मनोविज्ञान समझा जाय जिसके लिए किसी कंपनी के सी बन कर नहीं वरन इनके धरातल पर आकर और इनकी भाषा में संवाद करना होगा,जो भाषा ये दिल से समझते हों.और उस भाषा में लगायी गयी पुकार पर साथ चलने के लिए तैयार हों जाएँ.ऐसा ही अन्ना ने किया और सफल रहे अब अपना अपना मोर्चा खोले बाकी लोगों की बारी है.

कब तक उल्टा लटकाए रहोगे.


कहते हैं की हर तस्वीर कुछ कहती है.अब इसी तस्वीर को देख लीजिये,एक दिन दैनिक जागरण में दिख गयी.सरकार बहादुर के हाथ में डंडा है और उलटी लटकी हुई हुई जो टांगे दिख रही हैं वो तो कलमाड़ी की हैं कसाब की.बुजुर्ग बताते हैं की इस तरह उल्टा लटका के पीटने की परम्परा आदि काल से चली आरही है ,भले ही उसका कोई डिजिटल डाटा उपलब्ध हो पर पर ये सरकार बहादुर का प्रिय तरीका रहा है जनता को लाईन पर लाने का.जनता पिटती रही है और जो इस हालत में पिटते हैं उनके लिए कोई रोने की हिम्मत भी नहीं कर सकता,क्योंकि वो भी अपराध की कटेगरी में आता है
निश्चित ही पिटने वाले ने कोई संगीन अपराध किया होगा,क्योंकि सरकार एकदम बेवकूफ नहीं होती.हालिया घटनाओं को देखें तो एक बहुत बड़े मीडिया जनित योगी को ,जो कई सालों से एक धोती में दिखता था ,सरकार ने सलवार कमीज पहना दिया.पर एकाएक देश में एक उत्सव का माहौल बना और जो तिरंगा केवल साल के दो तीन दिन स्कूली बच्चों के हाथ में दिखता था वो सडकों पर इतना ज्यादा दिखने लगा की कई जगहों पर उसकी शार्टेज हो गयी.शायद तिरंगे को इतनी इज्ज़त मिलेगी ये कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा.ये इस लिए हुआ की जनता को लगने लगा की अगर उल्टा लटका के पीटेजाने से बचना है तो लो तिरंगा और उतर पड़ो मैदान में.जो भीड़ निकली उसे लोकपाल जोकपाल का मतलब भी नहीं पता और वो ज्यादा जानना भी नहीं चाहती .उसे लगा कि
ये अवसर है निकल पड़ने का,बस चल पड़ो.अन्यथा जिस कि वकालत करते हुए एक अनशनकारी बुजुर्ग ने संसद को चुनौती दी है,उस बिल को समझ लें तो आधी से ज्यादा भीड़ अन्ना हाय हाय करने लगेगी क्योंकि उस भीड़ के हित भी निश्चित ही प्रभावी होंगे,जो कहीं कहीं इस भ्रष्टाचार से पोषित भी है.ये अलग बात है कि अपना ठीक लगता है पर दूसरा करे तो कैरेक्टर ढीला होने कि बात कि जाती है
ये इस भीड़ का ही असर रहा कि उल्टा लटकाने में माहिर सरकार बहादुर को खुद उल्टा लटकने कि तैयारी करनी पडगई.पर भीड़ देख कर तमाम लोग जो लटकाए रहना चाहते हैं,और कई जगह लटकने में भी उन्हें आनंद आता है नए नए मुखौटे और मुद्दे लेकर उभरने लगे हैं.अभी तक शायद सो रहे थे,उनके कमरे कि खिड़कियाँ कुछ देर से खुलीं और सड़कों कि हलचल पता चली तो कुलबुलाहट होने लगी.उनसे यही कहा जासकता है कि आप को मना किसने किया था,आप भी अपने मुद्दे को प्रभावी ढंग से या प्रोपगंडा बना के ही सही सामने आये होते.एक बड़ा वर्ग जो जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी का नारा लगाता रहा है उनसे भी नम्र निवेदन है कि आप ये बखरी लगाने कि जगह क्यों नहीं मोर्चा सँभालते.किसी ने अन्ना कि जात नहीं पूछी,बस उनका रास्ता कुछ ठीक लगा और निकल पड़े.मत रोकिये इस रस्ते को और हो जाईये शामिल,मत कहिये मैं भी अन्ना -तू भी अन्ना .बस ये कहिये कि संविधान कहता है कि "हम भारत के लोग"भी कुछ हैं, कि रजिस्टर्ड पार्टियाँ ही हैसियत रखती हैं.
सरकार बहादुर के कानों तक धमक तो पहुंची कि कब तक उल्टा लटकाए रहोगे.