दिल्ली के रामलीला मैदान में एक बहुत बड़े कार्यक्रम की तैयारियां चल रहीं थीं,जिसके लिए बीस दिन पहले से तम्बू लगाने वाले जुटे थे पर मुझे इस ड्रामे से वंचित रहना था क्योंकि पहाड़ से बुलावा आगया.अपने बन्धुवत मित्र राहुल के साथ पिठ्ठू बैग में उसके औकात से ज्यादे सामान ठूंस कर कश्मीरी गेट पर रिट्ज़ सिनेमा हाल के पास रात के दस बजे पहुँच गया। इंटरनेट का जमाना है भाई सो हमने भी बस की ऑनलाइन टिकट ली थी.बस जहाँ से खुलनी थी वहां पहुँचते ही ठगे जाने का पहला प्रमाण मिला, एक यात्री ने बोला की उसकी टिकट पाँच सौ की है;हमारी एक टिकट आठ सौ की थी.एक ही बस में अलग -अलग दाम की टिकटें लिए ढेरों लोग मिले.अतुल्य भारत।
रिट्ज़ से लगभग ग्यारह बजे बस चली और आनंद विहार जाकर खड़ी होगई.वहां भी कुछ सवारियों को पकड़ने के बाद और कुछ यात्रियों की गालियाँ सुनने के बाद बस चली और थोड़ी देर में मैं सो गया.बीच में राहुल ने जगाया तो पता चला गजरौला में बस रुकी थी,कॉफ़ी की इच्छा लिए हम भी उतरे तो वहां चौड़ी गाड़ी लगा कर कुछ लोग ब्रह्म मुहूर्त में ही किसी दिव्य पेय के आनंद में झूमते नज़र आये.कॉफ़ी निपटा कर फिर इस आशा में ऊंघने लगा की अब तो सूर्योदय पहाड़ में होगा.मुझे बताया गया था की भोर में हम नैनीताल पहुँच जायेंगे.सुबह कुछ मनोरम देखने की आशा के साथ आँख खुली तो वही दृश्य दिखा जो हर यात्रा में सुबह दिखता है.सड़क के किनारे दिन की अच्छी शुरुआत के लिए बैठे लोग,पर ये नैनीताल है.नहीं जनाब पता चला की अभी हम रामपुर में डेढ़ घंटे से हैं,जाम लगा है साहब.खैर देश की व्यवस्था को गलियां देते हुए सहयात्रियों ने भी आँखें खोलीं।
हल्द्वानी पहुँचते पहुँचते कुछ फिजां बदलने का आभास होने लगा.थोडा और आगे दोगाँव नामक कस्बे में बस रुकी तब तक हम हिमालय की गो़द में आ चुके थे। हलकी बारिश से नहाये हुए पहाड़ पूरी सिद्दत से नजदीक बुला रहे थे.कुछ हरी लीचियों से लदे पेड़ों और अपनी मस्ती में मगन वानरों के चलते वहां आधा घंटा रुकना खला नहीं। लभगग सवा नौ बजे सुबह हमारी बस नैनीताल पहुंची.चौक पर गाँधी जी की मूर्ति दिखी तो मसूरी का गाँधी चौक याद आगया,वहां पहले बीच में इनको जगह मिली थी पर ट्रैफिक डिस्टर्ब करने का आरोप लगा कर किनारे लगा दिया गया .पता नहीं यहाँ पहले से ही ऐसे हैं या बाद में किनारे किये गए.बस से उतरते ही हड्डियां कड़कड़ाने लगीं और बैग में जून के महीने में ठूंसे गए गर्म कपड़ों की सार्थकता समझ में आने लगी......अरे ये क्या, झील के बारे में तो सुना था पर इतनी बड़ी, तबियत मस्त होगई.
नैनीताल में ट्रेनिंग अकेडमी में अपने एक परिचित के पास जाना था सो अनजान जगह पर एक टैक्सी वाले को लिया गया और उसके व्यवहार ने बस वालों के दुर्व्यवहार को भुला दिया.अकादमी में चारों तरफ फौजियों को देख कर लगा की कहीं गलत जगह तो नहीं आगया,पर पता चला की सेनाध्यक्ष का कार्यक्रम है इसलिए सारा परिसर सेना के नियंत्रण में है.वहां नाश्ता कर के हलकी बूंदा -बांदी के बीच फिर माल रोड पर आये। जैसे आप हरिद्वार जाएँ और गंगा न नहायें वैसा ही कुछ नैनीताल में आकर झील में बोटिंग न करने पर लगेगा। एकसौ साठ रुपये का टिकट लगा और अपन ताल में नौका विहार पर निकल लिए। बदलते मौसम के चलते कई शेड्स में तस्वीरें उतारने
का भी मौका मिल गया.हमारा गंतव्य यहाँ से लगभग पचीस किलोमीटर दूर रामगढ़ था इसलिए जल्दी निकलना था.मुझे पंद्रह साल मसूरी में रहने और गढ़वाल लगभग पूरा घूमने के बावजूद ये इलाका अच्छा लगा और अफ़सोस होने लगा की अभी तक यहाँ क्यों नहीं आया.रामगढ़ के लिए साधन की तलाश में कई गाड़ीवालों से सौदेबाजी के बाद ग्यारह सौ से शुरू होकर एक जीप वाला चारसौ में पट गया और निकल पड़े रामगढ़ की ओर। रामगढ़ ,जहाँ से जुडी हुई हैं यादें रविन्द्रनाथ टैगोर की,महादेवी वर्मा की, पहाड़ को अपनी रचनाओं में उकेरने वाले अनगिनत साहित्यकारों की और रामगढ़ जहाँ अभी भी बचा हुआ है पहाड़ और अपनी खूबसूरती के साथ आपका इंतज़ार करती है प्रकृति.

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