आप या तो इधर हैं या उधर

एकाएक भारत पर दुनिया भर की मीडिया की निगाहें लग गयी हैं, पल - पल का अपडेट दिया जारहा है. आखिर माजरा क्या है? पूरे देश में जन सैलाब सडकों पर है,इसे कोई नकार नहीं सकता.उतना ही सच ये भी है की तिरंगे को लहराते हुई भीड़ में अधिकतर को नहीं मालूम की लोकपाल या जनलोकपाल क्या है.तिरंगे और गाँधी टोपी की बिक्री में उछाल आ गया है. ऐसे में इस उभार पर सवालिया निशान लगाने वाले भी सक्रिय हैं,उनके हवाले से कहा जारहा है की इस भीड़ में गाँव,मजदूर दलित,दमित,आदिवासी नहीं है.ये विद्वान कह रहे हैं की वो टीवी नहीं देखते और फेसबुक,ट्विटर के अंतरजाल तक उनकी पहुँच नहीं है इसलिए उदासीन हैं.
तरस उनकी सोच पर, इस उभार ने आम आदमी के अन्दर के आक्रोश को अभिव्यक्ति दी है. जबरी मारे और रोने भी न दे की मानसिकता से बाहर निकलने का मौका मिला है.अन्ना और टीम (कभी टीम जेपी या टीम गाँधी नहीं सुना था) के बहाने सडकों पर निकले लोग ये बता रहे हैं की जैसा संविधान कहता है की "हम भारत के लोग " यानि केवल चुनाव जीतने हारने वाले ही नहीं,नीति निर्धारण में भागीदारी चाहते हैं.यह भीड़ रामलीला ख़तम होने के बाद घर में फिर लौटेगी तो सही पर जो लोग जल , जंगल, जमीन और आदमजात को बचाने के लिए काम कर रहें हैं उनके लिए शुभ संकेत भी है की निराश होने की जरूरत नहीं है इस आन्दोलन से सरकार बहादुर के सामने भी ये सवाल उठा है कि आखिर जनता को कब तक नकारते रहा जाये.सरकारी वकील सदन को समझाने में व्यस्त हैं कि जनता को इतनी ढील मिलगई तो सभी मौसेरे भाइयों को परेशानी हो सकती है.पर भाई लोग मरते क्या न करते के हालत में फंसे हुए हैं,आखिर उनसे भी उनके वोटर सवाल करेंगे कि जब हम सड़क पर थे तो आप कहाँ थे. इस नाते अन्ना से असहमत होते हुए भी सभी विपक्षी दल आन्दोलनकारियों के साथ हैं . पर भीड़ को राजनैतिक झंडे डंडे कि जरूरत नहीं है.
आजाद मैदान से खबर है कि भाजपा का झंडा लेकर गए एक हुजूम को भीड़ ने भगा दिया उससे भी बड़ी खबर देहरादून से आई जहाँ भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री जनरल भुवन चन्द्र खंडूरी एक जुलूस में शामिल थे जहाँ उनकी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी अपना झंडा और भीड़ लेकर आये,खंडूरी ने अपनी ही पार्टी का झंडा छीन कर किनारे कर दिया और कहा कि ये आन्दोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ जन आन्दोलन है न कि कोई राजनैतिक मोर्चा.दलीय राजनीती के लिए यह छोटी बात नहीं है.मायावती ने भी इस आन्दोलन को समर्थन दिया है,सरकारी बाबुओं कि समितियां भी कई राज्यों में साथ दे रही हैं, ये कोई व्यंग नहीं पर उनकी विवशता है.इस भीड़ पर ये सवाल करना कि इसमें शामिल कितने लोग व्यक्तिगत रूप से नैतिक और इमानदार हैं भी जायज नहीं कहा जा सकता इसी भ्रष्ट तंत्र ने हमको आपको विवश किया है कि रोजमर्रा के कामों में कुछ ले दे कर निपटाया जाये अन्यथा आपकी आत्मा भी फाईलों में ही भटकती रहेगी.
अतः मित्रों यही मौका है , जब आप सरकार को बताएं कि आप कि हैसियत क्या है.याद करिए कांग्रेस पार्टी कि स्थापना किस लिए हुई थी और हुआ क्या?कोई भी आन्दोलन ढेर सारी अंडर करेंट को समाहित किये रहता है जिसमें से कई समानांतर उभार कि संभावना रहती है.जो लोग किनारे खड़े हैं उन्हें भी अपने सवालों के साथ मैदान में आने का मौका है.आप या तो इधर हैं या उधर क्योंकि आप आजाद हैं पर अपनी बात कहने का अधिकार आपको होना ही चाहिए.लोकतंत्र में आपको सुने जाने का भी अधिकार होना चाहिए ,जो भी आपके लिए हो रहा हो उसमें आपकी भी भागीदारी होनी चाहिए.सवाल होते रहे हैं और होते भी रहेंगे पर जवाब लेने देने के मौके कम ही आते हैं.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें