तिरंगे की बहार



चलिए भारतीय जनतंत्र का एक उत्सव समाप्त हुआ,और मैं भी अन्ना तू भी अन्ना कहने वाले अपने अपने ठिकानों पर वापस लौट गए .बधाई हो नवीन जिंदल को,एक युवा के रूप में उन्होंने अमेरिका में हर जगह फहरते वहां के झंडे को देख कर अपने देश में भी ऐसी आज़ादी की लडाई लड़ी.उन्हें सफलता मिली और हमें भी अधिकार मिला की तिरंगा लेकर सडकों पर जब चाहें तब उतर सकें. आज़ादी के बाद पहली बार तिरंगे की ऐसी बहार आई की दर्जियों को ओवर टाईम करना पड़ा.निश्चित ही इस भीड़ के हाथों में तिरंगा जाने से आन्दोलन या उत्सव ,जो भी था ,उससे लोगों का जुडाव बढ़ता गया.ऐसी स्थिति में राष्ट्रिय चेतना मर गयी है जैसी बातें कहने वाले बुजुर्गों को कुछ राहत मिली होगी.निश्चित ही जो तिरंगे सडकों पर आये होंगे आज सम्मान के उन घरों में में रखे होंगे जहाँ से वो निकले थे.और वो फिर निकलेंगे जब कोई राष्ट्रिय पर्व आएगा.
इस भीड़ में युवाओं की भागीदारी बढ़ चढ़ कर थी,वही युवा जिनको साथ जोड़ने के लिए राजनैतिक दल तमाम तरह के हथकंडे अपनाते हैं.हरा नीला भगवा और लाल या जितने भी रंग हों सबके नीचे लाने के उपाय किये जाते हैं,पर अब वो दिन भी कहानियों में ही हैं जब यह वर्ग किसी झंडे के नीचे होकर निकलता था तो उसकी धमक सुनाई पड़ती थी.ऐसे में ये सबक तो मिला ही की इन्हें उदासीन समझने की गलती की जाय,इनकी उर्जा बची हुई है,बस ये निराश हो चुके हैं उन लोगों से जिन्होंने इन्हें सुनहरे सपने दिखाए फिर कहीं का नहीं छोड़ा.इस उत्सव में भी कहीं से भी सुनहरे सपने नहीं थे,बस आजादी थी उस झंडे को उठाने की जो कुछ समय पहले तक कुछ विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की गाड़ियों पर ही सजता था और खास दिनों पर ही आम जनता के हाथ में दिख सकता था.पर जनता भी उसे उठाने में हिचकती थी.
इस उत्सव ने तिरंगा उठाने का गर्व हर उस आदमी को महसूस कराया जो इसमें शामिल हुआ.अब जब की झंडा भी वापस रखा जा चुका है और रामलीला मैदान भी खाली हो चुका है तब फिर वो युवा ,जो भले ही कहा जारहा है की खास वर्ग से ही था,वापस अपनी जिंदगी में लौट चुका है.अब उस सैलाब,हालाँकि ये भी अभिजात्य मीडिया द्वारा गढ़ा गया कहा जारहा है,को अपने साथ लेने के लिए फिर मारामारी होगी.क्योंकि केवल टीवी कैमरों में फोकस पाने के लिए ही ये सड़क नहीं पर उतरे थे, इनको वो झंडा चाहिए जिसके नीचे आने में गर्व महसूस हो और इस काम के के लिए इन्हें घूस दी जाय.बस उन्हें प्रेरित किया जाय और उन्मादी बनाया जाय.
सपने दिखाने वाले बहुत आये और आते रहेंगे,सपने अधूरे ही रहेंगेपर तिरंगे के साथ निकली ये भीड़ बहुत कुछ कहती है.बस इनका मनोविज्ञान समझा जाय जिसके लिए किसी कंपनी के सी बन कर नहीं वरन इनके धरातल पर आकर और इनकी भाषा में संवाद करना होगा,जो भाषा ये दिल से समझते हों.और उस भाषा में लगायी गयी पुकार पर साथ चलने के लिए तैयार हों जाएँ.ऐसा ही अन्ना ने किया और सफल रहे अब अपना अपना मोर्चा खोले बाकी लोगों की बारी है.

कब तक उल्टा लटकाए रहोगे.


कहते हैं की हर तस्वीर कुछ कहती है.अब इसी तस्वीर को देख लीजिये,एक दिन दैनिक जागरण में दिख गयी.सरकार बहादुर के हाथ में डंडा है और उलटी लटकी हुई हुई जो टांगे दिख रही हैं वो तो कलमाड़ी की हैं कसाब की.बुजुर्ग बताते हैं की इस तरह उल्टा लटका के पीटने की परम्परा आदि काल से चली आरही है ,भले ही उसका कोई डिजिटल डाटा उपलब्ध हो पर पर ये सरकार बहादुर का प्रिय तरीका रहा है जनता को लाईन पर लाने का.जनता पिटती रही है और जो इस हालत में पिटते हैं उनके लिए कोई रोने की हिम्मत भी नहीं कर सकता,क्योंकि वो भी अपराध की कटेगरी में आता है
निश्चित ही पिटने वाले ने कोई संगीन अपराध किया होगा,क्योंकि सरकार एकदम बेवकूफ नहीं होती.हालिया घटनाओं को देखें तो एक बहुत बड़े मीडिया जनित योगी को ,जो कई सालों से एक धोती में दिखता था ,सरकार ने सलवार कमीज पहना दिया.पर एकाएक देश में एक उत्सव का माहौल बना और जो तिरंगा केवल साल के दो तीन दिन स्कूली बच्चों के हाथ में दिखता था वो सडकों पर इतना ज्यादा दिखने लगा की कई जगहों पर उसकी शार्टेज हो गयी.शायद तिरंगे को इतनी इज्ज़त मिलेगी ये कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा.ये इस लिए हुआ की जनता को लगने लगा की अगर उल्टा लटका के पीटेजाने से बचना है तो लो तिरंगा और उतर पड़ो मैदान में.जो भीड़ निकली उसे लोकपाल जोकपाल का मतलब भी नहीं पता और वो ज्यादा जानना भी नहीं चाहती .उसे लगा कि
ये अवसर है निकल पड़ने का,बस चल पड़ो.अन्यथा जिस कि वकालत करते हुए एक अनशनकारी बुजुर्ग ने संसद को चुनौती दी है,उस बिल को समझ लें तो आधी से ज्यादा भीड़ अन्ना हाय हाय करने लगेगी क्योंकि उस भीड़ के हित भी निश्चित ही प्रभावी होंगे,जो कहीं कहीं इस भ्रष्टाचार से पोषित भी है.ये अलग बात है कि अपना ठीक लगता है पर दूसरा करे तो कैरेक्टर ढीला होने कि बात कि जाती है
ये इस भीड़ का ही असर रहा कि उल्टा लटकाने में माहिर सरकार बहादुर को खुद उल्टा लटकने कि तैयारी करनी पडगई.पर भीड़ देख कर तमाम लोग जो लटकाए रहना चाहते हैं,और कई जगह लटकने में भी उन्हें आनंद आता है नए नए मुखौटे और मुद्दे लेकर उभरने लगे हैं.अभी तक शायद सो रहे थे,उनके कमरे कि खिड़कियाँ कुछ देर से खुलीं और सड़कों कि हलचल पता चली तो कुलबुलाहट होने लगी.उनसे यही कहा जासकता है कि आप को मना किसने किया था,आप भी अपने मुद्दे को प्रभावी ढंग से या प्रोपगंडा बना के ही सही सामने आये होते.एक बड़ा वर्ग जो जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी का नारा लगाता रहा है उनसे भी नम्र निवेदन है कि आप ये बखरी लगाने कि जगह क्यों नहीं मोर्चा सँभालते.किसी ने अन्ना कि जात नहीं पूछी,बस उनका रास्ता कुछ ठीक लगा और निकल पड़े.मत रोकिये इस रस्ते को और हो जाईये शामिल,मत कहिये मैं भी अन्ना -तू भी अन्ना .बस ये कहिये कि संविधान कहता है कि "हम भारत के लोग"भी कुछ हैं, कि रजिस्टर्ड पार्टियाँ ही हैसियत रखती हैं.
सरकार बहादुर के कानों तक धमक तो पहुंची कि कब तक उल्टा लटकाए रहोगे.

हमारी गड़बड़ी , तंत्र की मजबूती


हमने थोड़ी सी गड़बड़ की तो ये सरकार और मजबूत हो जाएगी.दिल्ली के रामलीला मैदान से आज अन्ना का उद्बोधन बहुत कुछ कह गया.जिनके बारे में कहा जारहा था की अब उठने की ताकत नहीं बची है,स्वास्थ्य गिरता जारहा है,और इस हवाले से सरकार को कोई बहाना मिल जाये और चिकत्सकीय आधार पर उन्हें हटाया जा सकता है.आज वो फिर बोले. उनकी सहजता और साधारण बुध्धि से उपजे विचार इस उत्सवधर्मिता को समेटे आन्दोलन को उर्जा प्रदान कर रहे हैं.आज पहली बार उन्होंने उन सारे मुद्दों को छुआ जिनको लेकर अभी तक एक वर्ग अपने को कटा हुआ महसूस कर रहा है। उन्होंने दलितों की बात की ,सर्वधर्म सद्भाव की बात ,छात्रों की बात की और जमीन अधिग्रहण के मुद्दे पर सुलग रहे आक्रोश की बात की.एक बड़े बुजुर्गों की तरह अनशन स्थल पर नशे की हालत में आने वालों को डांट नहीं लगायी और उनसे विनती की कि इस आन्दोलन में दाग न लगने दें।
हर तरफ चर्चा है कि सरकार अब इस मुद्दे पर गंभीर है पर ये खाए ,पिए अघाए लोग कितने गंभीर हैं.कितने घंटे से एक बूढा शरीर ,अनशन में उर्जावान बना हुआ है,उसके विचार और वाणी से कहीं भी विचलन का आभास नहीं मिलता .पर हुक्मरान अभी विचार कर रहे हैं,कैसा विचार. क्या हमारे द्वारा चुने हुए ये लोकतंत्र के ठीकेदार विचार शून्य हो चुके हैं.
निश्चित ही सत्ता को एक कार्पोरेट कल्चर में ढाल चुके तंत्र के पास जनमानस के धरातल पर उतर कर सोचने कि क्षमता समाप्त हो गयी है.एक्जक्यूटिव बन कर सरकार चलाने वालों को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है.सारे विलायत रिटर्न और विलायती भाषा में संवाद कि समझ सीखने वाले सलाहकार अब मौन हो चुके हैं,क्योंकि उन्हें भरोसा हो गया था कि जनता हमेशा के लिए सो चुकी है और उनसे कभी सवाल नहीं किये जायेंगे.ऐसे में जन संवाद कि कला रखने वाले लोगों का राजनीती से सफाया हो गया और केवल नफासत से टीवी चैनलों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले ही एक सूत्र बन गए जनता और तंत्र के बीच सीमित संवाद के.ऐसे में सरकार को कुछ करना होगा और जनता के प्रतिनधि के रूप में बैठे अन्ना के पास जाना होगा.अन्यथा अब जनता अपने नुमयिन्दों के दरवाजे पर जवाब लेने के लिए पहुँचाने लगी है.ऐसे में केवल लंबित होती बैठकों का हवाला देकर कुछ करने का बहाना आखिर कब तक चलता रहेगा. विपक्ष भी सत्ता सुंदरी के आलिंगन के लिए तैयार बैठा है पर झिझक उसे भी है,अगर ऐसा न होता तो आज सरकार द्वारा बुलाई गयी सर्वदलीय बैठक विपक्ष के कहने पर टाली न जाती.हवाला दिया गया कि सारे लोग दिल्ली में नहीं हैं,संसद चल रही है,दुनिया कि निगाहें रामलीला मैदान पर लगी हैं ऐसे में कहाँ हैं विपक्षी दल के लोग।
सत्ताधारी दल के सांसद भी चुनावी भविष्य को देखते हुए गाँधी टोपी लगाये घूमते नज़र आरहे हैं,अन्ना कह रहे हैं कि अगर मृत्यु भी आजाये तो कोई परवाह नहीं, पर दरबार मौन है। क्या उसे अन्ना कि मौत का इंतजार है.शायद उसे अभी भी भ्रम है कि ये आन्दोलन शहरी एलिट का है जिसे अन्ना के रूप में एक आइकन मिला है.पर ऐसे भ्रम जब टूटते हैं तो टूट जाती हैं बहुत सारी चीजें. ये केवल टीवी कैमरों में फोकस पाने का आन्दोलन नहीं है,ये जनता का उभार है,अपनी संस्कारगत कमियों के बावजूद सत्ता को चुनौती देने का.आखिर संविधान हम भारत के लोगों को ही प्रभुता देता है.अभी तक हमने जों गड़बड़ की उससे इस भ्रष्ट तंत्र को मजबूती ही मिली पर अब एक बूढा सिपाही ,जिसका जोश कहता है अब बस करो अब और बर्दास्त नहीं होगा ,ललकार रहा है । निश्चित ही ये ललकार बहुत आगे तक जाएगी,क्योंकि कभी मैं भी गाँधी ,तू भी गाँधी नहीं नहीं सुना गया था .अब मैं भी अन्ना और तू भी अन्ना गूँज रहा है तो इसमें ग्लोबल होतेमध्यवर्गीय समाज और जनहित से कटते जाते युग में एक नया मोड़ आने की संभावनाएं दिखती हैं.जिसे गाँव गिरांव से लेकर लेह और चेन्नई तक समर्थन मिल रहा है.

एक मुलाकात नत्था से

कल दिन भर बिजली गोल रही और इनवर्टर बोल गया ,शाम को सोचा की अन्धकार को क्यों कोसें चलो मोमबत्ती जलाएं.बाज़ार गया तो किसी दुकान में नहीं मिली.बताया गया की जिन शहरों में दिन भर बिजली रहती है वहीं आज कल सारी मोमबत्तियां ख़तम हो जारही हैं.मैं खुश हो कर घर रहा था की चलो देश में जनजागरण चल रहा है और अब बदलाव आने वाला है तभी किसी ने आवाज लगायी.मैं और भी खुश की इतने प्यार से बुलाने वाले लोग अभी बचे हैं.पीछे मुड कर देखा तो खादी का हाफ कुरता,जींस चढ़ाये,सलीके से दाढ़ी रखे एक मझोले कद का आदमी दिखा.कंधे पर झोला लटक रहा था,मैंने अंदाजा लगाया की कोई संस्थाजीवी आदमी होगा.किसी ने बता दिया होगा की मैं प्रेस रिलीज़ बढ़िया लिख लेता हूँ और जुगाड़ लगा के इधर उधर छपवा भी सकता हूँ और ये काम खाली खुराकी पर ही कर देता हूँ इसलिए पकड़ो
पास आकर उसने कहा ,नहीं पहचाना ,मैं आपका नत्था.अब तो चौंकना लाज़मी था.मैंने कहा की यार सिनेमा में तो दिखाया था की तुम शहर में मजदूरी करने चले गए फिर ये बदलाव कैसे.वो बोला की ये शहर का ही तो कमाल है.मैंने कहा की चल किसी चाय की दुकान में बैठते हैं फिर मुझे तुम्हारी लम्बी कहानी सुननी है.मेरे मन में उसके
बदलाव से ख़ुशी मिश्रित इर्ष्या हो रही थी.वो बोला कि देखिये देश में विकास की स्थिति ,मैं तीन साल बाद अपने इलाके में आया पर यहाँ शहर में कोई ढंग का रेस्तरां नहीं जहाँ दस मिनट शांति से बैठा जासके फिर सोचिये मेरे गाँव का क्या हाल होगा.अब मेरी उत्सुकता बढ़ गयी कि ये जो बीडी मांग कर पीता था इतनी बड़ी बड़ी बातें कैसे कर रहा है.खैर वहीं चाय की दुकान पर बैठा gaya ,साफ लग लग रहा था कि नत्था को वहां बैठना अच्छा नहीं लग रहा था पर वो बैठा और जो सुनाया उसे मैं उसी कि जुबानी लिख रहा हूँ ताकि आप के भी काम आये.
" आप ने तो देखा ही होगा की मैं टीवी वालों से बच के भाग निकला और शहर आगया.मजदूरी करने लगा और दाल रोटी बीडी का जुगाड़ चल निकला.दिन भर खटता और शाम को पौव्वा मार के सो जाता था.देश भर के अपने टाईप के लोग थे ,समय अच्छा कट रहा था.तभी एक दिन एक बहन जी आयीं और बोलीं की कितने दिन से तुमको खोज हूँ और तुम यहाँ हो,मैं घबडाया की अब कौन सिनेमा बनाएगी.पर उन्होंने मुझे अपनी गाड़ी में बैठाया और घर ले गयीं जहाँ दस बीस आदमी औरत सब बैठे हुए थे.सब देश, विकास ,गरीब, शोषण और अमेरिका और जाने क्या क्या बोल रहे थे.तब मुझे ये सब समझ में नहीं आता था.फिर एक आदमी मुझे चाय पकड़ाते हुए बोला की नत्थाजी आप जैसे लोगों की समस्याओं को दूर करने के लिए आप को खुद आगे आना होगा,हम लोग इसमें आप की मदद करेंगे.व्यवस्था बदलनी ही होगी,कब तक खाली सिनेमा ही बनता रहेगा.भईया मुझे तो समझ में नहीं आरहा था.पर मेरे रहने खाने का जुगाड़ उन्ही लोगों ने कर दिया और कहा की अब आप अपने जैसे लोगों को जगाने का काम करिए,हमारे साथ रहिये
भईया मैं फिर उनलोगों के साथ साथ बड़े-बड़े हाल में जाता और वहां खूब खाए पिए लोगों के बीच में अपनी कहानी सुनाता,काहें से की सब बात पर तो सिनेमा बना नहीं था.फिर बहन जी ने बहुत कागज पत्तर पर मेरा अंगूठा लिया ,डर की बात थी नहीं ,क्या था मेरे पास जो वो लेती.एक दिन सब हमको बताये की तुमको अमेरिका चलना है और वहां दुनिया भर के लोगों के अपनी बात बतानी है.मैंने कहा की सब को सिनेमा दिखादो तो सब हमको डपट दिए और बोले की जैसा कहा जाय वैसा ही करो.तो भईया मैं अमेरिका गया,फिर वहां से और जगह भी गया,एक लायीं मैं बोलता फिर वही बात बहन जी अंग्रेजी में सबको बतातीं.बड़ा मजा आने लगा.लौट के देश आया तो बहन जी के एक साथी ने बताया की तुमको घुमा के ये कितना पैसा बना रही है तुम नहीं जानते,अब तुम हमारे साथ रहो.हमको भी साल भर में सब समझ में आने लगा था.पांच तक मैं भी कभी कभी स्कूल जाता था,भईया अखबार पढ़ना सिखाये ही थे ,इतना बेवकूफ मैं नहीं था.समझ में आगया की जो ज्यादा पैसा दे उसीके साथ रहूँगा.कुछ दिन फिर मैं दूसरे लोगों के साथ काम करने लगा,गरीबी पर भाषण देने के काम में बड़ा फायदा है.खूब ढेर सारी जान पहचान हो गयी,बहुत लोग अब नत्था जी कहते हैं.पिछले साल मैंने अपनी संस्था बनाली,दिल्ली में ही आफिस है.अब समय एकदम नहीं मिलता,अभी देश में बहुत काम करना है,असली आज़ादी अभी आई नहीं है.गरीब की दशा और ख़राब होगई है.उनका कोई सुनने वाला नहीं है."
मुझे अब देश की चिंता नहीं अपने घर की चिंता होने लगी थी की वहां अँधेरा है और बाज़ार में मोमबत्ती नहीं मिली.तभी फिर नत्था बोल पड़ा भईया आप तो घर जारहे हैं नहीं तो विलायती शीशी है झोले में,क्या करें इतना वर्कलोड है की अब तो ये जरूरत हो गयी है.मुझे अब कोफ़्त होने लगी थी की अब तो ये अंग्रेजी भी बोलने लगा है.
फिर उसने कहा की अब तो कोई साधन मिलेगा नहीं कहीं से भाड़े की गाड़ी का जुगाड़ कर दीजिये,मुझे गाँव जाना है .वहां प्रधान जी के घर आज मेरा खाना है,फिर वहीं आराम करेंगे और सुबह मंगरू को लेकर दिल्ली निकल जायेंगे.उसकी भी हालत बहुत ख़राब है और वो तो दस पास है मेरे लिए बड़े काम का है.हाँ ये लीजिये मेरा कार्ड,कभी दिल्ली आना हो,कहीं कोई काम हो तो बेहिचक कहियेगा.तब तक चाय वाले ने एक गाड़ी बुला ली थी , नत्था जी चले गए,चाय वाले ने पैसे भी नहीं लिए,और मैं अँधेरे में विलीन होती सफ़ेद अम्बेसडर को वहीं जड़वत देखता रहा.

आप या तो इधर हैं या उधर

एकाएक भारत पर दुनिया भर की मीडिया की निगाहें लग गयी हैं, पल - पल का अपडेट दिया जारहा है. आखिर माजरा क्या है? पूरे देश में जन सैलाब सडकों पर है,इसे कोई नकार नहीं सकता.उतना ही सच ये भी है की तिरंगे को लहराते हुई भीड़ में अधिकतर को नहीं मालूम की लोकपाल या जनलोकपाल क्या है.तिरंगे और गाँधी टोपी की बिक्री में उछाल आ गया है. ऐसे में इस उभार पर सवालिया निशान लगाने वाले भी सक्रिय हैं,उनके हवाले से कहा जारहा है की इस भीड़ में गाँव,मजदूर दलित,दमित,आदिवासी नहीं है.ये विद्वान कह रहे हैं की वो टीवी नहीं देखते और फेसबुक,ट्विटर के अंतरजाल तक उनकी पहुँच नहीं है इसलिए उदासीन हैं.
तरस उनकी सोच पर, इस उभार ने आम आदमी के अन्दर के आक्रोश को अभिव्यक्ति दी है. जबरी मारे और रोने भी न दे की मानसिकता से बाहर निकलने का मौका मिला है.अन्ना और टीम (कभी टीम जेपी या टीम गाँधी नहीं सुना था) के बहाने सडकों पर निकले लोग ये बता रहे हैं की जैसा संविधान कहता है की "हम भारत के लोग " यानि केवल चुनाव जीतने हारने वाले ही नहीं,नीति निर्धारण में भागीदारी चाहते हैं.यह भीड़ रामलीला ख़तम होने के बाद घर में फिर लौटेगी तो सही पर जो लोग जल , जंगल, जमीन और आदमजात को बचाने के लिए काम कर रहें हैं उनके लिए शुभ संकेत भी है की निराश होने की जरूरत नहीं है इस आन्दोलन से सरकार बहादुर के सामने भी ये सवाल उठा है कि आखिर जनता को कब तक नकारते रहा जाये.सरकारी वकील सदन को समझाने में व्यस्त हैं कि जनता को इतनी ढील मिलगई तो सभी मौसेरे भाइयों को परेशानी हो सकती है.पर भाई लोग मरते क्या न करते के हालत में फंसे हुए हैं,आखिर उनसे भी उनके वोटर सवाल करेंगे कि जब हम सड़क पर थे तो आप कहाँ थे. इस नाते अन्ना से असहमत होते हुए भी सभी विपक्षी दल आन्दोलनकारियों के साथ हैं . पर भीड़ को राजनैतिक झंडे डंडे कि जरूरत नहीं है.
आजाद मैदान से खबर है कि भाजपा का झंडा लेकर गए एक हुजूम को भीड़ ने भगा दिया उससे भी बड़ी खबर देहरादून से आई जहाँ भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री जनरल भुवन चन्द्र खंडूरी एक जुलूस में शामिल थे जहाँ उनकी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी अपना झंडा और भीड़ लेकर आये,खंडूरी ने अपनी ही पार्टी का झंडा छीन कर किनारे कर दिया और कहा कि ये आन्दोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ जन आन्दोलन है न कि कोई राजनैतिक मोर्चा.दलीय राजनीती के लिए यह छोटी बात नहीं है.मायावती ने भी इस आन्दोलन को समर्थन दिया है,सरकारी बाबुओं कि समितियां भी कई राज्यों में साथ दे रही हैं, ये कोई व्यंग नहीं पर उनकी विवशता है.इस भीड़ पर ये सवाल करना कि इसमें शामिल कितने लोग व्यक्तिगत रूप से नैतिक और इमानदार हैं भी जायज नहीं कहा जा सकता इसी भ्रष्ट तंत्र ने हमको आपको विवश किया है कि रोजमर्रा के कामों में कुछ ले दे कर निपटाया जाये अन्यथा आपकी आत्मा भी फाईलों में ही भटकती रहेगी.
अतः मित्रों यही मौका है , जब आप सरकार को बताएं कि आप कि हैसियत क्या है.याद करिए कांग्रेस पार्टी कि स्थापना किस लिए हुई थी और हुआ क्या?कोई भी आन्दोलन ढेर सारी अंडर करेंट को समाहित किये रहता है जिसमें से कई समानांतर उभार कि संभावना रहती है.जो लोग किनारे खड़े हैं उन्हें भी अपने सवालों के साथ मैदान में आने का मौका है.आप या तो इधर हैं या उधर क्योंकि आप आजाद हैं पर अपनी बात कहने का अधिकार आपको होना ही चाहिए.लोकतंत्र में आपको सुने जाने का भी अधिकार होना चाहिए ,जो भी आपके लिए हो रहा हो उसमें आपकी भी भागीदारी होनी चाहिए.सवाल होते रहे हैं और होते भी रहेंगे पर जवाब लेने देने के मौके कम ही आते हैं.

हे मनमोहन , ये कौन सी लीला


हे मनमोहन तुम्हरी माया अपरम्पार.महागुरु नरशिम्हा राव ने तुम्हारी प्रतिभा को पहचाना. उसके पहले तुम रहे होगे एक विद्वान अर्थशास्त्री.बड़ी मोटी डिग्री और अनुभव लेकर आप आये.विश्व बैंक के नारे पर चल कर देश को एक विश्व ग्राम से कनेक्ट करने की तैयारी शुरू हो गयी थी.और हो गया यहाँ भी ग्लास्नोस्त और पेरोस्त्रोइका.तुम्हारे आते ही देश में बहार आगई, बड़ी ईमानदारी से देश को अमेरिका बनाने में जुट गए.और अमेरिका बनते देश ने सुनना शुरू किया ऐसी बड़ी बड़ी रकम के बारे में जो सपने भी नहीं सुना था.तुमने खोल दिए थे फाटक जिससे हवा में उड़ने लगीं थीं नोटों की गड्डियाँ.इण्डिया का शाईनिंग बड़ी तेज़ी से होने लगा था.तभी हर्षद मेहता का नाम उछला और पहली बार चर्चा में आई तुम्हारी और चिंदम्बरम की जोड़ी, फिर यूरिया का जहाज जो चला ही नहीं कभी उसको भी पूरा पेमेंट कागज पर ही करवा दिया.सौ करोड़ से ज्यादा का पेमेंट राव साहब के सुपुत्र खा गए और आपकी आर्थिक कलाबाज़ी ने सबको बचा लिया.
कतरब्योंत की साईलेंट क़ाबलियत बहुत काम आई और आपने प्रधानमंत्री का पद पाया. फिर तो ऐसी आज़ादी आई की दुनिया आपकी कायल हो गयी और अमेरिका से आपको दुनिया के बेहतरीन लीडरान में शामिल किया गया.और कहा जाता है की दुनिया में कोई भी चीफ ऑफ़ स्टेट आप जैसी अकेडमिक योग्यता वाला नहीं हुआ है पर आपकी योग्यता ने तो ऐसे गुल खिलाये की दुनिया की आँखें फट गयीं.आपके पहले के मिस्टर क्लीन कितनी छोटी रकम के चलते सत्ता से बेदखल हो गए अब पता चलता है.आप के तमाम सहयोगी तिहाड़ी हो गए, संचार क्रांति की तरंगों को पकड़ कर जो रास्ता सुखराम ने अपनाया था वो बड़ा ऊपर तक चला गया.और देश ने घोटाले के राजा को देखा,दुनिया भी जान गयी आपकी क़ाबलियत.जितना कुछ देशों का बज़ट होता है उतने का यहाँ घोटाला होगया.आपके सामने संविधान की शपथ लेने वाले राजा ने कहा की आप के मार्गदर्शन में ही सब खेल हुआ,कोई चिंदी चोर हवालात में कुछ कहता है,किसी का नाम लेता है तो उसे भी तुरंत अन्दर पहुंचा दिया जाता है पर आप बच गए क्योंकि आप ईमानदार हैं.ऐसे ही ही दिल्ली में खेल हुए पूरी दुनिया ने देखा, पर आप इस खेल में नहीं थे ये हम कैसे मान लें.
आपने आठवीं बार लालकिला पर तिरंगा फहरा दिया,पर उसके पहले अन्ना को आप बताने से नहीं चूके की अनशन करना है तो सही जगह अपना आवेदन करें.अरे भाई आज़ादी के चौंसठ साल बाद भी आम आदमी को नहीं पता की वो कौन सी सही जगह है जहाँ अपना आवेदन दें.आप को तो पता होगा ही, काहें नहीं अन्ना की चिट्ठी सही जगह भेज दिए.आप के हवाले से जाती तो काम भी हो जाता. लालकिला से आप भ्रष्टाचार- भ्रष्टाचार बोलते रहे पर फिर दिल्ली में ये क्या कर दिया.
अरे अब भी समय है ,कुछ अपना भी दिमाग लगाईये और अब अनर्थ ज्यादा मत हो कुछ ऐसा ही कदम उठायिए.कुछ और नहीं तो कुर्सी से उतर जाईये और छोड़ दीजिये उन्ही पर जिनसे आप सलाह लेते हैं हैं और जिनके कहने पर चलते हैं.तिरंगे की इज्ज़त नीलाम मत करिए, संसद तो बिकाऊ हो ही गयी है.आपका आर्थिक उदारीकरण बड़ा भरी पड़ा है.अब भी समय है संभल जाईये.

लन्दन की आग


उत्तरी लन्दन के टोटेनहम में तीन दिन से आग लगी हुई है.शुरूआती कारण पुलिस ने बताया की एक आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्ति को रोके जाने पर उसने पुलिस पर फायरिंग की, जवाबी फायरिंग में वह मारा गया.प्रतिक्रिया स्वरुप स्थानीय लोगों ने पुलिस पोस्ट को घेर लिया और पेट्रोल बमों से पुलिस पर हमला किया.इसके बाद लन्दन की दुनिया भर में पहचान बनी एक डबल देकर बस को फूंक दिया गया.धीरे धीरे भीड़ बढ़ती गयी और वहां की भाषा में ' तीसरी दुनिया ' का नज़ारा दिखने लगा.करोड़ों के सामन लूट लिए गए , स्टोर जलाये जाने लगे और पुलिस बेबस ,लाचार.पहले श्वेत ब्रिटिश मीडिया की सधी प्रतिक्रिया आई की इस इलाके में कैरेबियन मूल के अप्रवासी बहुमत में हैं और अपनी जीवन शैली तथा आमदनी के स्तर के चलते वो अभी तक मुख्य धारा में शामिल ही नहीं हो पाए हैं.ये भी कहा गया की इसी कारण ये इलाका हमेशा गडबडियों के लिए बदनाम रहा है.पर अब दुनिया भर में नेट पर तस्वीरें मौजूद हैं जिनमें मूल ब्रिटिश युवा भी सामान लूट के भागते दिख रहे हैं.यानि आर्थिक मंदी से पीड़ित और बेरोज़गारों की जमात को कमाई का मौका मिल गया.याद करिए मिस्र की हालिया क्रांति की शुरुआत , पुलिस प्रताड़ना से एक विक्रेता की मृत्यु होती है फिर उसकी तस्वीरें इंटरनेट पर जारी होती हैं जिसके बाद सुलग रहे आक्रोश को हवा मिलती है और जो हुआ सबके सामने है.लन्दन में भी सोशल नेटवर्किंग साईट्स का प्रयोग आग लगाने में बखूबी हो रहा है,'रोल ऑन एंड लूट' जैसे सन्देश जारी किये जारहे हैं.तस्वीरों में दिख रहा है की नाबालिग बच्चे भी ट्रालियों में सामान लेकर भाग रहे हैं.
यूरोप
में एक बड़ा तबका ये मान रहा है की आर्थिक नीतियों के चलते दुनिया भर में चल रहे एक अंडर करेंट का ये ब्रिटिश उभार हो सकता है.पर मीडिया का एक टूल के रूप में कैसे इस्तेमाल होता है इस मामले में देखिये.कहीं भी इसे जनाक्रोश नहीं कहा जारहा है, अनियंत्रित भीड़ का अचानक हिंसक और लुटेरी जमात में बदल जाना ही कहा जारहा है.इस मामले में चीन के एक अखबार ग्लोबल टाईम्स में एक लेख पढ़ा जिसमें लिखा गया है की अगर कहीं और ये घटना होती तो बड़े आराम से पाश्चात्य मीडिया 'क्रायिसेंथिमम रिवोल्युसन' जैसा प्यारा सा नाम दे कर लग जाती आततायियों के महिमामंडन में,भले ही हम इस चीनी व्याख्या से सहमत हों पर लन्दन का जलना कोई छोटी घटना नहीं है . दुनिया भर के नेताओं से अमेरिका कहा रहा है की वो अपने देश में अमेरिकी अर्थव्यवस्था की तारीफ़ करें और कहें की उसे कुछ नहीं होगा ताकि बाज़ार का भरोसा बढे .जबानी जमा खर्च से अर्थव्यवस्था सुधारने की बातें हो रही हैं,यानी अभी भी हवा में ही किला मजबूत करने की कवायद हो रही है.ऐसे में कई सालों से हवाई किले बना कर सपने दिखाने वाली ब्रिटिश अर्थव्यवस्था भी हंगरी और ग्रीस के रास्ते पर बढ़ रही है.कहा जाता है की एथेंस ओलम्पिक के कर्जों की मार ने ग्रीस को बर्बाद कर दिया और अगला नंबर ब्रिटेन का है जो की बड़े जोर शोर से लन्दन ओलम्पिक की तैयारियों में लगा हुआ है.खेल कितने फायदेमंद होते हैं ये हम कामनवेल्थ गेम्स करा के देख चुके हैं.
पूरी दुनिया में आर्थिक मोर्चे पर हाहाकार मचा हुआ है,कोई आश्चर्य नहीं की दुनिया को तथाकथित सभ्यता सिखाने का दावा करने वाले मुल्क में लगी आग बढ़ने लगे.ऐसे में दो साल पहले अर्थशाश्त्र का नोबल पुरस्कार जितने वाली एल्नर ओस्त्राम की याद करनी चाहिए.इतिहास में पहली बार किसी महिला को अर्थशाश्त्र का नोबल मिला था और उनका अध्ययन भी आधुनिक सोच से अलग हमारी परंपरागत समझ पर आधारित था.उन्होंने उधार और गला काट व्यवस्था की जगह परस्पर सहयोग की भावना पर बल दिया था और उदाहरण के रूप में दुनिया भर के पहाड़ी इलाकों के ढेर सारे समुदायों की व्यवस्था को पेश किया था जो अभी भी अपने व्यापर में मानवता का ध्यान रखते हैं.

गंगे तुम बहती कैसे हो !

गंगा क्या है, एक नदी, देश के एक बड़े भूभाग की जीवनधारा और हिन्दुओं के लिए मोक्षदायिनी, पतित- पावनी पुण्यसलिला.कोई शक नहीं की गंगा का हमारे जीवन मरण में बहुत बड़ा महत्त्व है, पर हम गंगा की शुचिता के लिए क्या करते हैं.अभी गंगा पर बात आस्ट्रेलिया से उठी,वहां एक रेडियो प्रस्तोता ,काईल ने गंगा को एक लाइव कार्यक्रम में जंकयार्ड कहा. बवाल मच गया ,आस्ट्रेलियन हिन्दू संगठन के यदु सिंह ने रेडियो कंपनी और सरकार से इस पर कड़ा विरोध दर्ज कराया और तमाम हिन्दुओं की भावनाओं को देखते हुए वहां के अखबारों में भी इस कार्यक्रम की निंदा की गयी.यहाँ देश खुद अनेक मोर्चों पर जूझ रहा है फिर भी कुछ संस्थाओं ने एक गुमनाम से आस्ट्रेलियन को हीरो बनाया,जाहिर है इससे रेडियो के श्रोता बढे ही होंगे और श्रोता बढ़ेंगे तो प्रस्तोता की आय भी बढ़ेगी ही.
गंगा किस शहर में नहाने लायक बची हैं? अगर आस्था का हिलोर न हो तो स्वाभाविक रूप से मेरे ख्याल से किसी भी जगह गंगा ऐसी स्थिति में नहीं हैं जहाँ ख़ुशी से डुबकी लगाने का जी करे.हाँ ,गंगोत्री की बात छोड़ दीजिये, बस गोमुख से गंगोत्री तक बारह- तेरह किलोमीटर तक की यात्रा में ही गंगा शुद्ध हैं.ध्यान रहे मैं वैज्ञानिक रूप से शुद्धता की बात कर रहा हूँ.गंगोत्री ही वो पड़ाव है जहाँ गंगा का सामना आम जन से होना शुरू हो जाता है और हम उसे मैली करने का दायित्व भी वहीँ से पूरे शद्ध भाव से शुरू करदेते हैं.उत्तरकाशी भरा पूरा शहर है,जहाँ से सुनियोजित जल-मल का निस्तारण गंगा में होने लगता है और गंगासागर तक ये कार्यक्रम बना रहता है.टिहरी में हिमालय के एक कोने में सदा के लिए अँधेरा करते हुए बड़ा सा बांध बना दिया गया और बांध दी गयीं गंगा,ताकि हिंदुस्तान रोशन हो सके.यहाँ एक बहुत बड़ी झील बनगई है जिसमें गंगा का अवरोधित जल अत्यंत ही दारुण रूप में दिखता है,शायद बांध की भेंट चढ़े टिहरी शहर की हाय लग गयी है.बांध के नियंत्रित दरवाजों से होती हुई गंगा हरिद्वार पहुंचती हैं जहाँ उनकी धारा को कृतिम रूप से मोड़ कर हर की पैड़ी बना दी गयी है ताकि धरम का धंधा चलता रहे.और फिर आगे गंगा का क्या हाल है सब जानते हैं.समय समय पर शोध होते रहते हैं और कहा जाता है की अब जल आचमन के योग्य भी नहीं रहा.ऐसे ही तमाम शहरों का कचरा ढोते हुए गंगासागर में ये दुखद यात्रा समाप्त होती है.गंगासागर के बारे में कभी एक बंगाली मित्र ने बताया था की मकर संक्रांति के समय बहुत से लोग घर के बुजुर्गों को जबरदस्ती 'जय बोलुन दादा' के नारे के साथ पानी में डुबाते रहते हैं ताकि गंगा मोक्ष प्रदान करदें.
गंगा सफाई के नाम पर न जाने कितनी योजनायें और महायोजनायें बनीं,बड़ी बड़ी बातों के साथ एक्सन प्लान भी बने, पर आवंटित धन ऐसे समुंदर में लुप्त होता जाता है की थाह लगाना मुश्किल है.रामकृष्ण परमहंस जी एक बार,अपने भक्तो के बहुत जोर देने पर काशी आये,मंदिरों में घूम फिर के गंगा घाट पर बैठे.साथ आये लोगों ने पूछा की यहाँ सबसे बढ़िया क्या लगा तो उनका जवाब था की यहाँ के लोगों की पाचन शक्ति बहुत अच्छी है.जाहिर है घाटों पर प्रमाण बिखरे पड़े थे.आज तो स्थिति ऐसी हो गयी है की गंगा को ही पचा लेने वाली व्यवस्था पैदा होगई है.ऐसे में दूर आस्ट्रेलिया में कोई कुछ कहता है तो चिल्लाने की बजाय हम ये सोचें की हम गंगा के लिए क्या कर रहे हैं.

चाँद दिखा

चाँद दिखा और ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी, मुक़द्दस रमजान का एलान हो गया.इससे मुझे क्या ,मैं न तो नमाज़ी हूँ न रोजेदार.पर भाई हम लोगों को इंतज़ार रहता है इफ्तार की दावतों का, खालिस मुगलाई अंदाज में बने पकवानों का.और रमजान के बाद दोस्तों मित्रों के यहाँ ईद मिलने जाना, बस उन्हीं लोगों के यहाँ मिलने वाली खास सेवइयां एक बार आप खा लें तो ताउम्र याद रखेंगे.मुझे याद है की पिछले साल की ईद और अयोध्या पर इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसल लगभग साथ ही आये थे.मार -काट की तमाम संभावनाएं टीवी चैनलों ने तैयार की थीं पर कुछ फैसले की समझदारी और कुछ वक्त की मार से घायल जनता की लाचारी से माहौल खराब नहीं हुआ था और ईद बढ़िया बीत गयी. मैं भी अपने गंगा-जमुनी तहजीब वाले शहर गाजीपुर में परवेज़ भाई के घर दावत उड़ाने गया था और बच्चे को ईदी दे कर निकलते समय सोच रहा था की इन बच्चों को राम और अल्लाह से क्या लेना,होसके तो हम इन्हें इंसान बनाने की कोशिश करें;खुद तो हम क्या हैं ये कहा नहीं जासकता.
पर इस साल का चाँद एक फ़तवा लेकर भी आया है.दारुल उलूम नदवातुल उलेमा (नदवा कालेज,लखनऊ ) ने एक फतवे में कहा है की सियासी इफ्तारों में शामिल होने से एहतियात किया जाना चाहिए. सही बात भी है,रमजान आते ही चौराहों पर होर्डिंग लगा के सफ़ेद बगुले बैठ जाते हैं. अनेक सफ़ेदपोश इफ्तार पार्टियों का आयोजन करने लगते हैं और खुदा था अकलियत के खिदमतगार के रूप में नज़र आने लगते हैं.टोपियों का धंधा बढ़ जाता है और शुरू हो जाती है नौटंकी जिसका खुदा से कोई वास्ता ही नहीं.लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों के लोग इफ्तार का आयोजन ऐसे करते हैं गोया आलाकमान ने व्हिप जारी कर दिया हो.इन दावतों में खुदा का तो नहीं पर खुदाई का जिक्र होता है, कौन कहाँ कितना खोदने में सफल होता है, बस इसी जुगाड्बाजी में रोजे खुलवाने की दावतें होती हैं.जाहिर है जब रब से वास्ता ही नहीं तो बात रब्बानी हिना खार की ही होती होंगी.
एक सवाल के जवाब में नदवा से कहा गया है की इफ्तार उसी के यहाँ जायज है जिसकी आमदनी भी जायज हो.ये तो और भी गंभीर मसला है,जायज आमदनी वाला बंदा खुदा को याद करके किसी तरह अपनी दाल रोटी चला ले वही बहुत है. इस महंगाई में बोटी का जुगाड़ करना तो एवरेस्ट चढ़ने के बराबर हो गया है.उस पर तुर्रा ये की बड़े का जो गोष्ट है उस धंधे में भी इतनी माफियागिरी घुस गयी की आम आदमी के लिए वो भी खरीदना मुश्किल हो गया है.ऐसे में जायज कमाई वाले कहाँ से इफ्तार दे पायेंगे.राजभवन और मुख्यमंत्री आवास में भी इफ्तार पार्टियां होती हैं ,पता नहीं उनकी कमाई कितनी जायज,खुदा जानें.
अब एक संस्था ने कहा है की वो इस फतवे की प्रति हर मस्जिद में बंटवायेगी ताकि रोजेदारों की पाकीज़गी मुकम्मल रहे.
अब पता नहीं सियासी पार्टियां और मौसमी कुकुर्मोत्तों पर कोई फर्क पड़ेगा की नहीं पर जिनको अपना मुसल्लम ईमान बचाना है उन्हें तो सावधान रहना ही होगा.आज ही अखबार में टोपी पहने मुलायम सिंह की आधी पेज की फोटो है जिसके साथ रमजान के महीने का पूरा कैलेण्डर है,सहरी और इफ्तारी के साथ.शायद उनको लगता होगा की रोजेदारों के यहाँ अब हिज़री का कैलेण्डर नहीं होता और ईसाई कैलेण्डर से कहीं रोजे पर असर न पड़े.अगले चुनावों को देखते हुए सपा ने ये एक क्रांतिकारी कदम उठाया है. खैर इन सबसे मुझे क्या लेना देना, अपन तो इंतजार करेंगे की ईद आये और हम उनके घर जाएँ.