रामगढ़ से टैगोर टॉप







धनंजय .
धरती पर कुछ ही जगहें ऐसी बची हैं जहाँ पहुंचकर आपके अन्दर उर्जा का संचार होने लगता है,निश्चित ही रामगढ़ भी उनमें से एक है.यहाँ आप को जागने के लिए उद्यम नहीं करना पड़ता.सुबह होते ही चिड़ियों की चहचाहट से आँख खुल जाती है और वातावरण में व्याप्त अलौकिक प्राणवायु आपको देर रात बिस्तर पर जाने के बावजूद प्रफुल्लित किये रहती है.साथ ही हर पल बदलते शेड्स आपकी आँखों को तरोताजा कर देते हैं. अम्बरीश जी की स्नेहिल चाय और पहाड़ों की कहानियों के साथ मेरा भी दिन शुरू हुआ.राइटर्स काटेज में ढेरों किताबें रखी हुई हैं,मेरी नज़र निर्मल वर्मा की "चीड़ों पर चांदनी" पर पड़ी.पास में एक खुली किताब पर नज़र पड़ी,कृष्णा सोबती का नायक भुवाली के अपने कमरे से आसमान देख रहा था.भुवाली भी रामगढ़ के पास ही एक क़स्बा है,जहाँ अंग्रेजों ने टीबी सेनोटेरियम बनवाया था.तब इलाज के नाम पर स्वच्छ वातावरण में मरीज को एकाकी जीवन बिताने के लिए इसी इलाके में लाया जाता था.न जाने कितने फेफड़ों में इन्ही पहाड़ों को ताकते हुए जान आगई होगी और कुछ ऐसे भी रहे होंगे जिन्होंने इन्ही वादियों में अपनी अंतिम सांसे ली होंगी.साहित्य से टीबी तक मैं सोचने लगा तभी मेरे मेजबान ने कहा की कमला नेहरु ही नहीं गुरुदेव रबिन्द्र नाथ टैगोर भी यहाँ आ चुके हैं.टैगोर का नाम सुनते ही कल एक स्थानीय व्यक्ति के साथ हुई चर्चा याद आ गयी.कल आसपास की जगहों के बारे में मैं जानकारियां जुटा रहा था तो टाइगर टॉप के बारे में पता चला.मुझे नाम कुछ जमा नहीं क्योंकि पुराने ज़माने में तो यहाँ हर जगह टाइगर रहे होंगें.यहाँ तो अभी भी बाघ सर्दियों में आजाते हैं.मेरी जिज्ञासा शांत करते हुए बताया गया की झंडा फहराते समय जो गाते हैं न उसीको जिसने लिखा था,उसकी कोठी थी वहां.वाह भाई, टैगोर यहाँ टाइगर हो गए.
टैगोर टॉप रामगढ़ से ज्यादे दूर नहीं है और सीधा रास्ता है.कस्बे से वापस नैनीताल की और तकरीबन 500 मीटर सड़क पर चलने के बाद बायीं तरफ एक रास्ता ऊपर की और जाता है,हर संभव जगह कब्ज़ा करने की इच्छा लेकर पैदा हुए व्यापारियों ने इधर भी रिसोर्ट्स बनाये हुए हैं और थोड़ी दूर ऊपर इस रस्ते पर भी लकड़ी का कामचलाऊ गेट लगा है.लेकिन सड़क से थोडा ऊपर आते ही आप रहते हैं और आपके साथ चलती हैं बस ठंडी हवाएं.क़स्बा पीछे छूटता जाता है और थोड़ी दूर पर ही खुबानी और सेव के बगीचे शुरू हो जाते हैं.रस्ते के बायीं तरफ घाटी और दूर धवल हिमालय,जी हाँ हिमालय.कहा जाता है कि हिमालय के दर्शन आपके भाग्य पर निर्भर हैं,मेरा भाग्य ठीक था.हर पल को कैमरे में कैद करने कि लालसा तो थी ही पर गुरुदेव कि उपस्थिति जिस जगह ने महसूस कि थी वहां पहुँचने कि जल्दी भी थी. पहाड़ में अगर भटक जाएँ तो भी उसका एक अलग ही आनंद है,पर किसी निश्चित जगह के लिए निकलें हो और रास्ता भूल जाएँ तो ये ठीक नहीं.बीच में एक जगह दो रास्ते थे और एक चुनना था,सो हम बढ़ते गए.पर रामगढ़ से जो टॉप दिखाया गया था वह तो दूसरी तरफ था.खैर तकदीर अच्छी थी ज्यादे भटकना नहीं पड़ा.हाथ में दरातियाँ लिए कुछ घसियारिनें दिखीं,जिन्होंने सही रास्ते पर वापस भेजा.इस ऊँचाई से रामगढ़ का एक हिस्सा और दूर घाटी में छोटे गाँव,क्या कहने,हिमालय तो साथ था ही.कुछ आगे रास्ता घना हो जाता है.किनारे कुछ पत्थर पड़े हुए थे जहाँ जूते खोल कर बस मैं और वो वाली दशा में बैठ गए.घनी झाड़ियों में सरसराहट होने लगी और नीचे सुना था कि इस सीजन में यहाँ कुछ नहीं होता, पर अन्दर सुरसुराहट होने लगी.खैर थोड़ी देर में एक कुत्ता बड़ी तेजी से भागा.शायद वो भी हम लोगों से दर रहा था और हम किसी अनजानी आहट से.
चलना शुरू किया गया,रास्ते के दोनों तरफ सिर्फ जंगल जहाँ धुप नहीं आती.थोड़ी दूर के बाद ये रास्ता एक खुले मैदा जैसी जगह में आता है.यहाँ से दाहिने ऊपर कि और कुछ पत्थर से दीखते हैं.हम उधर ही बढ़ लिए.लगभग एक सौ मीटर चढ़ाई के बाद समतल सी जगह और कुछ दीवारों के अवशेष दिखाई देते हैं.ओह तो ये है वो जगह है जिसके बारे में बताया गया था कि गीतांजलि कि शुरुआत यहीं से हुई.उन बिखरे पत्थरों और कुछ खँडहर सी बनावट से लिपटने का जी करने लगता है, जिन्होंने कविन्द्र कि उपस्थिति को जिया होगा.अच्छी खासी जगह,एक कोने में दो कमरों के अवशेष साफ़ दीखते हैं,दूसरी तरफ कुछ दूरी पर भी शायद जल संग्रह के लिए निर्माण कि झलक मिलती है.थोडा ऊपर जाने पर भी कुछ पत्थरों कि चिनाई का आभास होता है,पर घनी झाड़ियों के कारण पता नहीं चलता कि क्या रहा होगा.निर्माण का दाहिना हिस्सा तो कुछ आभास देता है पर बायीं तरफ केवल जमीन पर पड़े पत्थर ही नीवं के रूप में पड़े मिलते हैं.हाँ बीच का हिस्सा खाली है,एक दो जगह चबूतरे जैसी कुछ बनावट नज़र आती है.ये समतल जगह इतने घने जंगल के बीच में है कि आपको यहाँ से बाहर का कोई दृश्य नहीं दीखता.अचरज कि बात ये कि इस निर्माण वाली भूमि में आज भी इक्के दुक्के पेड़ हैं.दुःख की बात है की ये जगह किसी नक्शे में नहीं है.जबकि बताया जाता है की अपनी बीमार पुत्री को लेकर गुरुदेव यहाँ आये थे,कोठी का निर्माण हुआ.गीतांजलि यहीं से शुरू हुई.पुत्री की असामयिक मृत्यु के कारण टैगोर यहाँ से चले गए और दुबारा नहीं आये. केंद्र सरकार इस वर्ष को गुरुदेव को समर्पित करके नजाने कितने रुपये बहा रही है,यहाँ एक पत्थर लगाने का भी बज़ट नहीं है. उत्तराखंड सरकार ने भी इस जगह की सुध नहीं ली.पर एक एक मायने में यह इस जगह के हित में भी है क्योंकि आपको यहाँ प्लास्टिक का कचरा नहीं दिखेगा,हम लोग पानी की खाली बोतलें नीचे रामगढ़ में ठिकाने लगाने के लिए साथ लेकर चल दिए वापस.
यहाँ से हटने का जी तो नहीं था पर बाहर आकर हिमालय कि तस्वीरें उतारने का लोभ था जो हम यहाँ से निकले.बाहर आते ही हिमालय हमारा स्वागत कर रहा था,छावं में बैठ कर निहारने लगे. जी नहीं भरता इस दिव्य दर्शन से.एक दो तस्वीरें ही खींची गयीं. अचानक एक कोने से बादल उठाने लगे और हिम दर्शन का कार्यक्रम समाप्ति की ओर,एकाएक उदासी छा गयी और हम नीचे उतरने लगे. कई कारणों से मन बोझिल हो रहा था.रास्ते में सेब के बगीचे के पास बैठ कर दूर नीचे घाटी में बहती नदी को निहारते रहे,क्योंकि ऊपर हिमालय पर बादल छा गए.कुछ देर चलने के बाद ही हम वापस रामगढ़ कस्बे में थे,और हमारे साथ थीं टैगोर टॉप की यादें.

रामगढ़,राइटर्स काटेज और बहादुर

ये हैं बहादुर और इन्ही जैसे लोगों के लिए हैं ढेर सारी कोठियां
फुर्सत के पल --------

कोजी कार्नर ---------
यहाँ आने का फल मीठा है -------
ये कौन चित्रकार है ----------


रामगढ़ एक प्यारा सा क़स्बा है,जहाँ आकर आप को खुद से मिलने का भरपूर मौका मिलता है.मुझे यहाँ एक कार्यशाला में आने का निमंत्रण मिला था.रामगढ़ के बारे में अलोक तोमर जी का लिखा याद आरहा था.पहुँचते ही सूरज ने बिदाई की तैयारी कर ली,पर गोधुली में आकाश के बदलते रंग मस्तिष्क में ऐसे घुसते गए की भूख प्यास ,थकान की जगह जीवन के प्रति अनुराग अन्दर तक उतरने लगा.कुछ कुछ डिवाइन टाइप की फीलिंग होने लगी.जहाँ अन्य लोगों को टिकाया गया था वहां बैग पटक कर बाहर आया.एक जानी - पहचानी सी सूरत दिखाई दी,ओह ये अपने लखनऊ वाले अम्बरीश जी.पिछले साल कुछ पोर्टलों पर इनके रामगढ़ में महल जैसे काटेज की खबरें चलीं थीं,तो यहीं है इनका महल.कुशल क्षेम के बाद उन्होंने अपने यहाँ ही रहने का निमंत्रण दिया.होटल --रिसोर्ट का औपचारिक माहौल अपन को
जमता है नहीं ऊपर से घर के खाने की लालच में मैं अम्बरीश जी के यहाँ आगया.
राइटर्स काटेज,जी हाँ छोटी सी जगह में बहुत ज्यादे स्पेस देता हुआ महल.अजी राजाओं को भी दुर्लभ है ये.नीचे के तल पर एक छोटा कमरा अम्बरीश जी का और ऊपर कभी कभार आने वाले मित्रों के लिए सुकून वाली जगह.अगल बगल ढेर सारे फलों से लदे पेड़ और शायद राष्ट्रपतिभवन से भी ज्यादे प्रफुल्लित फूलों ने इस जगह को
क्या बनाया है आप आकर ही समझ सकते हैं.फिर शुरू हुआ किस्से कहानियों का दौर,मैं दिल्ली के रामलीला मैदान को छोड़ कर आया था,सीमित नेट कनेक्टिविटी से
उपलब्ध दिल्ली में चल रही लीलाओं की जानकारी,पर तभी आया बहादुर.वैसे उसका नाम इन्दर है पर इन लोगों को हमारे देश में बहादुर कहा जाता है.ये यहाँ अम्बरीश जी का पुराना सहयोगी है. खासियत पता चली की ये हमेशा अपने से बात करता रहता है और बात होती है उसकी पत्नी और बिहार के बारे में,कारण उसकी पत्नी एक बिहारी श्रमिक के साथ पलायित हो चुकी है क्योंकि वह बहादुर से कम दारु पीता था.पता चला की इस प्यारे कसबे में ढेर सारे रसूख वालों की बड़ी बड़ी कोठियां हैं, जहाँ ऐसे ही बाहदुर ही रहते हैं.कुछ की पत्नियाँ भी साथ हैं और कुछ की भाग गयी हैं.इन बहादुरों के सहयोगी के रूप में मालिक की हैसियत के हिसाब से कुत्ते भी हैं.जो फलों पर टूटते बंदरों को शुरू में हड़काते हैं.पर पता चला की बन्दर बड़े कायदे से कुत्तों को पकड़ कर झपड़िया देते हैं,जिसके बाद कुत्ते भोंकना भी भूल जाते हैं.न तो रामगढ़ के कुत्ते आप को बोलेंगे और न बन्दर.बंदरों के सुख को देख कर लगा की अगले जनम मोहे रामगढ़ का वानर ही कीजो,चारों तरफ रसीले फलों के जंगल,अपने हिसाब से चुनने और खाने की आजादी.
अँधेरा घिरता जारहा था और आकाश में तारे बस हाथ बढ़ा के छु लेने की दूरी पर लग रहे थे.जाहिर है सोने की इच्छा तो नहीं थी पर टैगोर टॉप जाने की इच्छा के साथ जून के महीने में कम्बल तान लेट गया.सुबह टैगोर टॉप.

दिल्ली के रामलीला मैदान में एक बहुत बड़े कार्यक्रम की तैयारियां चल रहीं थीं,जिसके लिए बीस दिन पहले से तम्बू लगाने वाले जुटे थे पर मुझे इस ड्रामे से वंचित रहना था क्योंकि पहाड़ से बुलावा आगया.अपने बन्धुवत मित्र राहुल के साथ पिठ्ठू बैग में उसके औकात से ज्यादे सामान ठूंस कर कश्मीरी गेट पर रिट्ज़ सिनेमा हाल के पास रात के दस बजे पहुँच गया। इंटरनेट का जमाना है भाई सो हमने भी बस की ऑनलाइन टिकट ली थी.बस जहाँ से खुलनी थी वहां पहुँचते ही ठगे जाने का पहला प्रमाण मिला, एक यात्री ने बोला की उसकी टिकट पाँच सौ की है;हमारी एक टिकट आठ सौ की थी.एक ही बस में अलग -अलग दाम की टिकटें लिए ढेरों लोग मिले.अतुल्य भारत।
रिट्ज़ से लगभग ग्यारह बजे बस चली और आनंद विहार जाकर खड़ी होगई.वहां भी कुछ सवारियों को पकड़ने के बाद और कुछ यात्रियों की गालियाँ सुनने के बाद बस चली और थोड़ी देर में मैं सो गया.बीच में राहुल ने जगाया तो पता चला गजरौला में बस रुकी थी,कॉफ़ी की इच्छा लिए हम भी उतरे तो वहां चौड़ी गाड़ी लगा कर कुछ लोग ब्रह्म मुहूर्त में ही किसी दिव्य पेय के आनंद में झूमते नज़र आये.कॉफ़ी निपटा कर फिर इस आशा में ऊंघने लगा की अब तो सूर्योदय पहाड़ में होगा.मुझे बताया गया था की भोर में हम नैनीताल पहुँच जायेंगे.सुबह कुछ मनोरम देखने की आशा के साथ आँख खुली तो वही दृश्य दिखा जो हर यात्रा में सुबह दिखता है.सड़क के किनारे दिन की अच्छी शुरुआत के लिए बैठे लोग,पर ये नैनीताल है.नहीं जनाब पता चला की अभी हम रामपुर में डेढ़ घंटे से हैं,जाम लगा है साहब.खैर देश की व्यवस्था को गलियां देते हुए सहयात्रियों ने भी आँखें खोलीं।
हल्द्वानी पहुँचते पहुँचते कुछ फिजां बदलने का आभास होने लगा.थोडा और आगे दोगाँव नामक कस्बे में बस रुकी तब तक हम हिमालय की गो़द में आ चुके थे। हलकी बारिश से नहाये हुए पहाड़ पूरी सिद्दत से नजदीक बुला रहे थे.कुछ हरी लीचियों से लदे पेड़ों और अपनी मस्ती में मगन वानरों के चलते वहां आधा घंटा रुकना खला नहीं। लभगग सवा नौ बजे सुबह हमारी बस नैनीताल पहुंची.चौक पर गाँधी जी की मूर्ति दिखी तो मसूरी का गाँधी चौक याद आगया,वहां पहले बीच में इनको जगह मिली थी पर ट्रैफिक डिस्टर्ब करने का आरोप लगा कर किनारे लगा दिया गया .पता नहीं यहाँ पहले से ही ऐसे हैं या बाद में किनारे किये गए.बस से उतरते ही हड्डियां कड़कड़ाने लगीं और बैग में जून के महीने में ठूंसे गए गर्म कपड़ों की सार्थकता समझ में आने लगी......अरे ये क्या, झील के बारे में तो सुना था पर इतनी बड़ी, तबियत मस्त होगई.
नैनीताल में ट्रेनिंग अकेडमी में अपने एक परिचित के पास जाना था सो अनजान जगह पर एक टैक्सी वाले को लिया गया और उसके व्यवहार ने बस वालों के दुर्व्यवहार को भुला दिया.अकादमी में चारों तरफ फौजियों को देख कर लगा की कहीं गलत जगह तो नहीं आगया,पर पता चला की सेनाध्यक्ष का कार्यक्रम है इसलिए सारा परिसर सेना के नियंत्रण में है.वहां नाश्ता कर के हलकी बूंदा -बांदी के बीच फिर माल रोड पर आये। जैसे आप हरिद्वार जाएँ और गंगा न नहायें वैसा ही कुछ नैनीताल में आकर झील में बोटिंग न करने पर लगेगा। एकसौ साठ रुपये का टिकट लगा और अपन ताल में नौका विहार पर निकल लिए। बदलते मौसम के चलते कई शेड्स में तस्वीरें उतारने
का भी मौका मिल गया.हमारा गंतव्य यहाँ से लगभग पचीस किलोमीटर दूर रामगढ़ था इसलिए जल्दी निकलना था.मुझे पंद्रह साल मसूरी में रहने और गढ़वाल लगभग पूरा घूमने के बावजूद ये इलाका अच्छा लगा और अफ़सोस होने लगा की अभी तक यहाँ क्यों नहीं आया.रामगढ़ के लिए साधन की तलाश में कई गाड़ीवालों से सौदेबाजी के बाद ग्यारह सौ से शुरू होकर एक जीप वाला चारसौ में पट गया और निकल पड़े रामगढ़ की ओर। रामगढ़ ,जहाँ से जुडी हुई हैं यादें रविन्द्रनाथ टैगोर की,महादेवी वर्मा की, पहाड़ को अपनी रचनाओं में उकेरने वाले अनगिनत साहित्यकारों की और रामगढ़ जहाँ अभी भी बचा हुआ है पहाड़ और अपनी खूबसूरती के साथ आपका इंतज़ार करती है प्रकृति.